श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारग महला ५ ॥ चरनह गोबिंद मारगु सुहावा ॥ आन मारग जेता किछु धाईऐ तेतो ही दुखु हावा ॥१॥ रहाउ ॥ नेत्र पुनीत भए दरसु पेखे हसत पुनीत टहलावा ॥ रिदा पुनीत रिदै हरि बसिओ मसत पुनीत संत धूरावा ॥१॥ सरब निधान नामि हरि हरि कै जिसु करमि लिखिआ तिनि पावा ॥ जन नानक कउ गुरु पूरा भेटिओ सुखि सहजे अनद बिहावा ॥२॥१६॥३९॥ {पन्ना 1212}

पद्अर्थ: चरनह = पैरों से। मारगु = रास्ता। सुहावा = सुखद, सुंदर। आन = अन्य, और। मारग = रास्ता। जेता = जितना ही। धाईअै = दौड़ भाग करते हैं। तेतो = उतना ही। हावा = आहें।1। रहाउ।

नेत्र = आँखें। पुनीत = पवित्र। दरसु पेखे = दर्शन करने से। पेखे = देखने से। हसत = हस्त, हाथ। टहलावा = टहल, सेवा। रिदा = हृदय। रिदै = हृदय में। मसत = मस्तक, माथा। धूरावा = चरणों की धूड़।1।

निधान = खजाने। नामि हरि कै = हरी के नाम में। जिसु लिखिआ = जिसके (माथे पर) लिखा गया। करमि = (परमात्मा के) मेहर से (करमु = मेहर, कृपा, बख्शिश)। तिनि = उस (मनुष्य) ने। कउ = को। भेटिओ = मिल गया। सुखि = आनंद में। सहजे = आत्मिक अडोलता में। जन कउ = जिस मनुष्य को।2।

अर्थ: हे भाई! पैरों से (सिर्फ) परमात्मा के रास्ते (पर चलना ही) सोहाना लगता है। और अनेकों रास्तों पर जितनी भी दोड़-भाग की जाती है, उतना ही दुख लगता है, उतनी ही आहें निकलती हैं।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा के दर्शन करने से आँखें पवित्र हो जाती हैं, (परमात्मा के संत-जनों की) टहल करने से हाथ पवित्र हो जाते हैं। जिसके हृदय में परमात्मा आ बसता है वह हृदय पवित्र हो जाता है, वह माथा पवित्र हो जाता है जिस पर संतजनों की धूल लगती है।1।

हे भाई! परमात्मा के नाम में सारे (ही) खजाने हैं, जिस मनुष्य के माथे पर (परमात्मा ने अपनी) मेहर से (नाम की प्राप्ति का लेख) लिख दिया, उस मनुष्य ने (नाम) प्राप्त कर लिया। हे नानक! (कह- हे भाई!) जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिल गया (उसको प्रभू का नाम मिल गया, और उसकी जिंदगी) सुख में आत्मिक अडोलता में आनंद में गुजरने लग पड़ी।2।16।39।

सारग महला ५ ॥ धिआइओ अंति बार नामु सखा ॥ जह मात पिता सुत भाई न पहुचै तहा तहा तू रखा ॥१॥ रहाउ ॥ अंध कूप ग्रिह महि तिनि सिमरिओ जिसु मसतकि लेखु लिखा ॥ खूल्हे बंधन मुकति गुरि कीनी सभ तूहै तुही दिखा ॥१॥ अम्रित नामु पीआ मनु त्रिपतिआ आघाए रसन चखा ॥ कहु नानक सुख सहजु मै पाइआ गुरि लाही सगल तिखा ॥२॥१७॥४०॥ {पन्ना 1212}

पद्अर्थ: अंति बार = आखिरी समय। सखा = साथी, मित्र। जह = जहाँ। सुत = पुत्र। तू = तुझे। रखा = रखता है, सहायता करता है।1। रहाउ।

अंध कूप = घुप अंधेरे कूएँ। ग्रिह = हृदय घर। तिनि = उस (मनुष्य) ने। मसतकि = माथे पर। बंधन = मोह के फंदे। गुरि = गुरू ने। मुकति = खलासी। दिखा = दिया गया।1।

अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। त्रिपतिआ = तृप्त हो गया। आघाऐ = तृप्त हो गए। रसन = जीभ। सुख सहज = सारे सुख देने वाली आत्मिक अडोलता। गुरि = गुरू ने। तिखा = तृष्णा, प्यास।2।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का) नाम ही (असल) साथी है। (जिस मनुष्य ने) अंत के समय (इस नाम को) सिमरा, (उसका साथी बना)। हे भाई! जहाँ माता, पिता, पुत्र, भाई कोई भी नहीं पहुँच सकता, वहाँ पर (यह हरी-नाम ही) तुझे रख सकता है (तेरी रक्षा करता है)।1। रहाउ।

हे भाई! (माया के मोह के) अंधे कूएँ हृदय-घर में (सिर्फ) उस (मनुष्य) ने (ही हरी-नाम) सिमरा है जिसके माथे पर (नाम सिमरन का) लेख (धुर से) लिखा गया। (उस मनुष्य के) माया के मोह के फंदे खुल गए, गुरू ने उसको (मोह से) खलासी दिलवा दी, उसको ऐसा दिखाई दे गया (कि हे प्रभू!) सब जगह तू ही है तू ही है।1।

हे भाई! जिस मनुष्य ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी लिया, उसका मन शांत हो गया, उसकी जीभ नाम-जल चख के तृप्त हो गई। हे नानक! कह- (हे भाई! हरी-नाम की दाति दे के) गुरू ने मेरी सारी तृष्णा दूर कर दी है, मैंने सारे सुख देने वाली आत्मिक अडोलता हासिल कर ली है।2।17।40।

सारग महला ५ ॥ गुर मिलि ऐसे प्रभू धिआइआ ॥ भइओ क्रिपालु दइआलु दुख भंजनु लगै न ताती बाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ जेते सास सास हम लेते तेते ही गुण गाइआ ॥ निमख न बिछुरै घरी न बिसरै सद संगे जत जाइआ ॥१॥ हउ बलि बलि बलि बलि चरन कमल कउ बलि बलि गुर दरसाइआ ॥ कहु नानक काहू परवाहा जउ सुख सागरु मै पाइआ ॥२॥१८॥४१॥ {पन्ना 1212}

पद्अर्थ: गुर मिलि = गुरू को मिल के। अैसे = इस तरह (हरेक सांस के साथ)। ताती बाइआ = गरम हवा।1। रहाउ।

जेते = जितने भी। सास = सांसें। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। घरी = घड़ी। सद = सदा। जत = जहाँ जहाँ। जाइआ = जाते हैं।1।

हउ = मैं। बलि = सदके। कउ = को, से। दरसाइआ = दर्शन। काहू = किस की? सुख सागरु = सुखों का समुंद्र प्रभू।2।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य ने) गुरू को मिल के यूँ (हरेक साँस के साथ) परमात्मा का सिमरन किया, सारे दुखों का नाश करने वाला परमात्मा उस पर दयावान हुआ, उस मनुष्य को (सारी उम्र) गर्म-हवा नहीं लगती (कोई दुख-कलेश नहीं होता)।1। रहाउ।

हे भाई! जितने भी सांसें हम (जीव) लेते हैं, जो मनुष्य वह सारे ही साँस (लेते हुए) परमात्मा के गुण गाता है, (जो मनुष्य परमात्मा से) आँख झपकने जितने समय के लिए भी नहीं विछुड़ता, (जिसको उसकी याद) एक घड़ी के लिए भी नहीं भूलती, वह जहाँ भी जाता है, परमात्मा सदा उसको अपने साथ दिखता है।1।

हे नानक! कह- (हे भाई!) मैं परमात्मा के सुंदर चरणों से सदा ही सदा ही सदके जाता हूँ, गुरू के दर्शनों से बलिहार जाता हूँ। जब से मैंने (गुरू की कृपा से) सारे सुखों के समुंद्र प्रभू को पा लिया है, मुझे किसी की मुथाजी नहीं रही।2।18।41।

सारग महला ५ ॥ मेरै मनि सबदु लगो गुर मीठा ॥ खुल्हिओ करमु भइओ परगासा घटि घटि हरि हरि डीठा ॥१॥ रहाउ ॥ पारब्रहम आजोनी स्मभउ सरब थान घट बीठा ॥ भइओ परापति अम्रित नामा बलि बलि प्रभ चरणीठा ॥१॥ सतसंगति की रेणु मुखि लागी कीए सगल तीरथ मजनीठा ॥ कहु नानक रंगि चलूल भए है हरि रंगु न लहै मजीठा ॥२॥१९॥४२॥ {पन्ना 1212}

पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। सबदु गुर = गुरू का शबद। करमु = बख्शिश (का द्वार)। परगासा = (आत्मिक जीवन की) रौशनी। घटि घटि = हरेक शरीर में। डीठा = मैंने देख लिया है।1। रहाउ।

आजोनी = जो जूनियों में नहीं आता। संभउ = स्वयंभू, अपने आप सक प्रकट होने वाला। घट = शरीर। बीठा = बैइा हुआ, व्यापक। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। बलि बलि = बलिहार, सदके। चरणीठा = चरण।1।

रेणु = चरन धूल। मुखि = मुँह पर। सगल = सारे। मजनीठा = स्नान। रंगि = प्रेम रंग से। चलूल = गाढ़ा लाल। न लहै = नहीं उतरता। मजीठा = मजीठ (के रंग की तरह)।2।

अर्थ: हे भाई! मेरे मन को गुरू का शबद मीठा लग रहा है (शबद की बरकति से मेरे लिए) परमात्मा की मेहर (का दरवाजा) खुल गया है, (मेरे हृदय में आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया है, मैंने हरेक शरीर में परमात्मा को (बसता) देख लिया है।1। रहाउ।

हे भाई! (गुरू के शबद की बरकति से मुझे इस तरह दिख रहा है कि) अजूनी स्वयं भू प्रकाश पारब्रहम हरेक जगह में हरेक के शरीर में बैठा हुआ है। (गुरू के शबद से मुझे) आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम मिल गया है, मैं परमात्मा के चरणों से बलिहार जा रहा हूँ।1।

हे भाई! (गुरू की कृपा से) साध-संगति के चरणों की धूड़ मेरे माथे पर लगी है (इस चरन-धूड़ की बरकति से मैंने तो, मानो) सारे ही तीर्थों का स्नान कर लिया है। हे नानक! कह- (हे भाई!) मैं परमात्मा के प्रेम-रंग में गाढ़ा रंगा गया हूँ। मजीठ के पक्के रंग की तरह यह हरी-प्रेम का रंग (मेरे मन से) उतरता ही नहीं है।2।19।42।

सारग महला ५ ॥ हरि हरि नामु दीओ गुरि साथे ॥ निमख बचनु प्रभ हीअरै बसिओ सगल भूख मेरी लाथे ॥१॥ रहाउ ॥ क्रिपा निधान गुण नाइक ठाकुर सुख समूह सभ नाथे ॥ एक आस मोहि तेरी सुआमी अउर दुतीआ आस बिराथे ॥१॥ नैण त्रिपतासे देखि दरसावा गुरि कर धारे मेरै माथे ॥ कहु नानक मै अतुल सुखु पाइआ जनम मरण भै लाथे ॥२॥२०॥४३॥ {पन्ना 1212}

पद्अर्थ: गुरि = गुरू ने। साथे = साथ। निमख = आँख झपकने जितना समय। हीअरै = हृदय में। भूख = माया की भूख। लाथे = उतर गई है।1। रहाउ।

क्रिपा निधान = हे मेहर के खजाने! गुण नाइक = हे सारे गुणों के मालिक! ठाकुर = हे मालिक! नाथे = हे नाथ! मोहि = मुझे। सुआमी = हे सवामी! दुतीआ = दूसरी। बिराथे = व्यर्थ।1।

नैण = आँखें। त्रिपतासे = तृप्त हो गई हैं। देखि = देख के। गुरि = गुरू ने। कर = (अपने) हाथ (बहुवचन)। मेरै माथै = मेरे माथे पर। अतुल = जो तोला ना जा सके। भै = सारे डर (बहुवचन)।2।

अर्थ: हे भाई! गुरू ने परमात्मा का नाम मेरे साथ साथी (के रूप में) दे दिया है। अब परमात्मा की सिफतसालाह का शबद हर वक्त मेरे हृदय में टिका रहता है (उसकी बरकति से) मेरी माया की सारी भूख उतर गई है।1। रहाउ।

हे कृपा के खजाने! हे सारे गुणों के मालिक ठाकुर! हे सारे सुखों के नाथ! हे स्वामी! (अब हरेक सुख-दुख में) मुझे सिर्फ तेरी ही (सहायता की) आशा रहती है। कोई और दूसरी आशा मुझे व्यर्थ प्रतीत होती है।1।

हे नानक! कह- (हे भाई!) जब से गुरू ने मेरे माथे पर अपना हाथ रखा है, मेरी आँखें (प्रभू के) दर्शन करके तृप्त हो गई हैं। मैंने इतना सुख पा लिया है कि वह तोला-नापा नहीं जा सकता, मेरे पैदा होने-मरने के भी सारे डर उतर गए हैं।2।20।43।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh