श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1213 सारग महला ५ ॥ रे मूड़्हे आन काहे कत जाई ॥ संगि मनोहरु अम्रितु है रे भूलि भूलि बिखु खाई ॥१॥ रहाउ ॥ प्रभ सुंदर चतुर अनूप बिधाते तिस सिउ रुच नही राई ॥ मोहनि सिउ बावर मनु मोहिओ झूठि ठगउरी पाई ॥१॥ भइओ दइआलु क्रिपालु दुख हरता संतन सिउ बनि आई ॥ सगल निधान घरै महि पाए कहु नानक जोति समाई ॥२॥२१॥४४॥ {पन्ना 1213} पद्अर्थ: रे मूढ़े = हे मूर्ख! आन कत = और कहाँ? काहे = क्यों? संगि = (तेरे) साथ। मनोहरु = मन को मोहने वाला। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। रे = हे (मूर्ख)! भूलि भूलि = बार बार (इसको) भूल के। बिखु = (आत्मिक मौत लाने वाला) जहर।1। रहाउ। चतुर = समझदार। अनूप = (अन+ऊप) उपमा रहित। बिधाते = सृजनहार। तिसु सिउ = उससे। रुच = रुचि, प्रीति। राई = थोड़ा सा भी। मोहनि = मन को मोहने वाली माया। बावर = हे बावरे! झूठि = झूठ में, नाशवंत में। ठगउरी = ठॅग बूटी।1। दुख हरता = दुखों का नाश करने वाला। सिउ = साथ। बनि आई = प्रीत बनी है। निधान = खजाने। घरै महि = हृदय घर में ही। जोति = परमात्मा की ज्योति में। समाई = लीन हो गई है।2। अर्थ: हे मूर्ख! तू और कहीं क्यों भटकता फिरता है? आत्मिक जीवन देने वाला सुंदर हरी-नाम-जल तेरे साथ है, तूने उससे टूट-टूट के (अब तक) आत्मिक मौत लाने वाला जहर ही खाया है।1। रहाउ। हे बावरे! परमात्मा सुंदर है, सुजान है, उपमा-रहित है, रचनहार है- उसके साथ रक्ती भर भी प्रीति नहीं। मन को मोह लेने वाली माया से तेरा मन परचा रहता है। नाशवंत जगत में फसाने वाली यह ठॅग-बूटी ही तूने संभाल के रखी है।1। हे नानक! कह- (हे भाई!) सारे दुखों को नाश करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य पर दयावान हो गया, उसकी प्रीति संत-जनों के साथ बन गई। उसने सारे खजाने हृदय-घर में ही पा लिए, परमात्मा की जोति में उसकी (सदा के लिए) लीनता हो गई।2।21।44। सारग महला ५ ॥ ओअं प्रिअ प्रीति चीति पहिलरीआ ॥ जो तउ बचनु दीओ मेरे सतिगुर तउ मै साज सीगरीआ ॥१॥ रहाउ ॥ हम भूलह तुम सदा अभूला हम पतित तुम पतित उधरीआ ॥ हम नीच बिरख तुम मैलागर लाज संगि संगि बसरीआ ॥१॥ तुम ग्मभीर धीर उपकारी हम किआ बपुरे जंतरीआ ॥ गुर क्रिपाल नानक हरि मेलिओ तउ मेरी सूखि सेजरीआ ॥२॥२२॥४५॥ {पन्ना 1213} पद्अर्थ: ओअं प्रीति = परमात्मा की प्रीति। प्रिअ प्रीति = प्यारे की प्रीति। चीति = (मेरे) चिक्त में। पहिलरीआ = पहले की, आदि कदीमों की। जो बचनु = जो उपदेश। तउ = तूने। सतिगुर = हे सतिगुरू! त्उ = तब। सीगरीआ = श्रृंगारी गई।1। रहाउ। हम = हम जीव। भूलह = हम भूलते हैं। पतित = (विकारों में) गिरे हुए। उधरीआ = (विकारों से) बचाने वाला। बिरख = वृक्ष। मैलागर = मलय पर्वत पर उगने वाला चंदन। लाज = इज्जत। संगि = साथ। बसरीआ = बसने वाले।1। धीर = धीरज वाले। बपुरे = बेचारे, निमाणे। जंतरीआ = जंतु। गुर = हे गुरू! सूखि = सुख वाली। सेजरीआ = हृदय सेज।2। अर्थ: हे सतिगुरू! (वैसे तो मेरे) चिक्त में प्यारे की प्रीति शुरू की ही (आदि-कदीमों से) (टिकी हुई है), पर जब तूने उपदेश दिया (वह प्रीति जाग उठी, और) मेरा आत्मिक जीवन सुंदर बन गया।1। रहाउ। हे गुरू! हम जीव (सदा) भूलें करते हैं, तू सदा अभुल है, हम जीव विकारों में गिरे रहते हैं, तू विकारियों को बचाने वाला है। हम (अरिण्ड जैसे) नीच वृक्ष हैं तू चंदन है, जो साथ बसने वाले पौधों को भी सुगंधित कर देता है। हे गुरू! तू अपने चरणों में रहने वालों की इज्जत रखने वाला है ।1। हे गुरू! तू जिगरे वाला है, धैर्यवान है, उपकार करने वाला है, हम निमाणें जीवों की कोई बिसात नहीं है। हे नानक! (कह-) हे कृपालु गुरू! जब से तूने मेरा प्रभू से मेल करवाया, तब से मेरी हृदय-सेज सुख-भरपूर हो गई है।2।22।45। सारग महला ५ ॥ मन ओइ दिनस धंनि परवानां ॥ सफल ते घरी संजोग सुहावे सतिगुर संगि गिआनां ॥१॥ रहाउ ॥ धंनि सुभाग धंनि सोहागा धंनि देत जिनि मानां ॥ इहु तनु तुम्हरा सभु ग्रिहु धनु तुम्हरा हींउ कीओ कुरबानां ॥१॥ कोटि लाख राज सुख पाए इक निमख पेखि द्रिसटानां ॥ जउ कहहु मुखहु सेवक इह बैसीऐ सुख नानक अंतु न जानां ॥२॥२३॥४६॥ {पन्ना 1213} पद्अर्थ: मन = हे मन! ओइ = ('ओह' से बहुवचन)। धंनि = धन्य, भाग्यशाली। ते घरी = वह घड़ियाँ। संजोग = मिलाप के समय। सुहावे = सुंदर। गिआनां = आत्मिक जीवन की सूझ।1। रहाउ। जिन = जिनको (बहुवचन)। मानां = आदर। सभु = सारा। ग्रिह = घर। हींओ = हृदय । (नोट: अक्षर 'उ' व 'अ' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'हींउ', यहाँ 'हींओ' पढ़ना है)।1। कोटि = करोड़ों। निमख = आँख झपकने जितना समय। पेखि = देख के। द्रिसटाना = निगाह, दर्शन। जउ = अगर। मुखहु = मुँह से। सेवक = हे सेवक! यह = यहाँ।2। अर्थ: हे मन! वह दिन भाग्यशाली होते हैं, (प्रभू के दर पर) कबूल होते हैं। (जिंदगी की) वह घड़ियाँ सफल हैं, (गुरू से) मेल के वह पल खूबसूरत होते हैं, जब गुरू की संगति में (रह के) आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त होती है।1। रहाउ। हे प्रभू! जिन मनुष्यों को तू (अपने दर पर) आदर देता है, वे धन्य हैं, भाग्यशाली हैं, किस्मत वाले हैं। हे प्रभू! मेरा यह शरीर तेरे हवाले है, मेरा सारा घर और धन तुझ पर से बलिहार है, मैं अपना हृदय (तेरे चरणों में) सदके करता हूँ।1। हे नानक! (कह- हे प्रभू!) आँख झपकने जितने समय के लिए तेरे दर्शन करके (मानो) राज-भाग के लाखों-करोड़ों सुख प्राप्त हो जाते हैं। अगर तू मुँह से कहे, 'हे सेवक! यहाँ बैठ', (मुझे इतना आनंद आता है कि उस) आनंछ का मैं अंत नहीं जान सकता।2।23।46। सारग महला ५ ॥ अब मोरो सहसा दूखु गइआ ॥ अउर उपाव सगल तिआगि छोडे सतिगुर सरणि पइआ ॥१॥ रहाउ ॥ सरब सिधि कारज सभि सवरे अहं रोग सगल ही खइआ ॥ कोटि पराध खिन महि खउ भई है गुर मिलि हरि हरि कहिआ ॥१॥ पंच दास गुरि वसगति कीने मन निहचल निरभइआ ॥ आइ न जावै न कत ही डोलै थिरु नानक राजइआ ॥२॥२४॥४७॥ {पन्ना 1213} पद्अर्थ: मोरो = मेरा। सहसा = सहम। उपाव = ('उपाउ' से बहुवचन) उपाय।1। रहाउ। कोटि = करोड़ों। पराध = अपराध। खउ = नाश। भई है = हो जाता है। सिधि = सिद्धियाँ। अहं = अहंकार। खइआ = नाश हो गया।1। पंच = (कामादिक) पाँचों। गुरि = गुरू ने। वसगति = वश में। निहचल = अडोल। कत ही = कहीं भी। आइ न जावै = ना आता है ना जाता है, दौड़ भाग नहीं करता। थिरु = सदा कायम रहने वाला।2। अर्थ: हे भाई! (जब से) मैं गुरू की शरण पड़ा हूँ, (मैंने मन को काबू करने के) और सारे उपाय छोड़ दिए हैं। (गुरू की शरण की बरकति से) अब मेरा हरेक सहम हरेक दुख दूर हो गया है।1। रहाउ। हे भाई! जब से मैंने गुरू को मिल के परमात्मा का नाम जपना शुरू किया है, एक छिन में ही मेरे करोड़ों अपराधों का नाश हो गया है, मुझे सारी रिद्धियाँ-सिद्धियाँ प्राप्त हो गई हैं, मेरे सारे काम सँवर गए हैं, मेरे अंदर से अहंकार का रोग सारा ही मिट गया है।1। हे भाई! गुरू ने (कामादिक) पाँचों को मेरा दास बना दिया है, मेरे वश में कर दिया है, (इनके मुकाबले पर) मेरा मन अहिल हो गया है निडर हो गया है। हे नानक! (कह- गुरू की कृपा से मेरा मन अब) कहीं दौड़-भाग नहीं करता, कहीं नहीं डोलता (इसको, जैसे) सदा कायम रहने वाला राज मिल गया है।2।24।47। सारग महला ५ ॥ प्रभु मेरो इत उत सदा सहाई ॥ मनमोहनु मेरे जीअ को पिआरो कवन कहा गुन गाई ॥१॥ रहाउ ॥ खेलि खिलाइ लाड लाडावै सदा सदा अनदाई ॥ प्रतिपालै बारिक की निआई जैसे मात पिताई ॥१॥ तिसु बिनु निमख नही रहि सकीऐ बिसरि न कबहू जाई ॥ कहु नानक मिलि संतसंगति ते मगन भए लिव लाई ॥२॥२५॥४८॥ {पन्ना 1213} पद्अर्थ: इत = इस लोक में। उत = परलोक में। सहाई = सहायता करने वाला। जीअ को = जिंद का, प्राणों का। गाई = गा के। कवन गुन = कौन कौन से गुण? कहा = कहूँ, बताऊँ।1। रहाउ। खलि = खेल में। खिलाइ = खिला के। अनदाई = आनंद देने वाला। निआई = जैसा, की तरह। पिताई = पिता।1। निमख = आँख झपकने जितने समय। मिलि = मिले, यदि मिले। ते = वे (बहुवचन)। लिव = लगन। लाई = लगा के।2। अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभू, इस लोक में और परलोक में सदा सहायता करने वाला है। मेरे मन को मोहने वाला वह मेरा प्रभू मेरे प्राणों का प्यारा है। मैं उसके कौन-कौन से गुण गा के बताऊँ?।1। रहाउ। हे भाई! जैसे माता-पिता अपने बच्चे की पालना करते हैं, वैसे ही हमारा लालन-पालन करता है, वह हमें (जगत-) तमाशे में खेलाता है, लाड-लडाता है, वह सदा ही सुख देने वाला है।1। हे भाई! उस (परमात्मा की याद) के बिना आँख झपकने जितनें समय के लिए भी नहीं रहा जा सकता, उसको कभी भुलाया नहीं जा सकता। हे नानक! कह- जो मनुष्य साध-संगति में मिलते हैं, वे मनुष्य परमात्मा में सुरति जोड़ के मस्त रहते हैं।2।25।48। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |