श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु कलिआन महला ४

ੴ सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

रामा रम रामै अंतु न पाइआ ॥ हम बारिक प्रतिपारे तुमरे तू बड पुरखु पिता मेरा माइआ ॥१॥ रहाउ ॥ हरि के नाम असंख अगम हहि अगम अगम हरि राइआ ॥ गुणी गिआनी सुरति बहु कीनी इकु तिलु नही कीमति पाइआ ॥१॥ गोबिद गुण गोबिद सद गावहि गुण गोबिद अंतु न पाइआ ॥ तू अमिति अतोलु अपर्मपर सुआमी बहु जपीऐ थाह न पाइआ ॥२॥ उसतति करहि तुमरी जन माधौ गुन गावहि हरि राइआ ॥ तुम्ह जल निधि हम मीने तुमरे तेरा अंतु न कतहू पाइआ ॥३॥ जन कउ क्रिपा करहु मधसूदन हरि देवहु नामु जपाइआ ॥ मै मूरख अंधुले नामु टेक है जन नानक गुरमुखि पाइआ ॥४॥१॥ {पन्ना 1319}

पद्अर्थ: रम = सर्व व्यापक। रामै अंतु = परमात्मा (की हस्ती) का अंत। हम = हम जीव। प्रतिपारे = पाले हुए। बड = बड़ा। माइआ = माँ।1। रहाउ।

असंख = (संख्या = गिनती) अनगिनत। अगम = अपहुँच। हहि = हैं (बहुवचन)। राइआ = राजा, पातिशाह। सुरति = सोच, विचार। बहु = बहुत। पाइआ = पाया, पा के।1।

सद = सदा। गावहि = गाते हैं (बहु वचन)। गुण गोबिद अंतु = गोबिंद के गुणों का अंत। अमिति = (मिति = मर्यादा, हद बंदी) जिसकी हस्ती का अंदाजा ना लगाया जा सके। अपरंपर = परे से परे। बहु जपीअै = (तेरा नाम) बहुत जपा जाता है। थाह = गहराई।2।

उसतति = वडिआई, सिफतसालाह। करहि = करते हैं (बहुवचन)। माधौ = (माधव। माया का धव। धव = पति) हे माया के पति प्रभू! हरि राइआ = हे प्रभू पातिशाह! जल निधि = पानी का खजाना, समुंद्र। मीने = मछलियां। कतहू = कहीं भी।3।

कउ = को, पर। मध सूदन = ('मधु' राक्षस को मारने वाला) हे परमात्मा! जपाइआ = जपने के लिए। अंधुले = अंधे के लिए। टेक = सहारा। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख होने पर।4।

अर्थ: हे भाई! सर्व-व्यापक परमात्मा (के गुणों) का अंत (किसी जीव द्वारा) नहीं पाया जा सकता। हे प्रभू! हम जीव तेरे बच्चे हैं, तेरे पाले हुए हैं, तू सबसे बड़ा पुरख है, तू हमारा पिता है, तू हमारी माँ है।1। रहाउ।

हे भाई! प्रभू-पातशाह के नाम अनगिनत हैं (प्रभू के नामों की गिनती तक) पहुँच नहीं हो सकती। हे भाई! अनेकों गुणवान मनुष्य अनेकों विचारवान मनुष्य बहुत सोच-विचार करते आए हैं, पर कोई भी मनुष्य परमात्मा की महानता का रक्ती भर भी आकलन नहीं कर सका।1।

हे भाई! (अनेकों ही जीव) परमात्मा के गुण सदा गाते हैं, पर परमात्मा के गुणों का अंत किसी ने नहीं पाया। हे प्रभू! तेरी हस्ती को नापा नहीं जा सकता, तेरी हस्ती को तोला नहीं जा सकता। हे मालिक-प्रभू! तू परे से परे है। तेरा नाम बहुत जपा जा रहा है, (पर तू एक ऐसा समुंद्र है कि उसकी) गहराई नहीं पाई जा सकती।2।

हे माया के पति-प्रभू! हे प्रभू-पातिशाह! तेरे सेवक तेरी सिफत-सालाह करते रहते हैं, तेरे गुण गाते रहते हैं। हे प्रभू! तू (मानो, एक) समुंद्र है, हम जीव तेरी मछलियाँ हैं (मछली नदी में तैरती तो है पर नदी की हस्ती का अंदाजा नहीं लगा सकती)। हे प्रभू! कहीं भी कोई जीव तेरी हस्ती का अंत नहीं पा सका।3।

हे दैत्य-दमन प्रभू! (अपने) सेवक (नानक) पर मेहर कर। हे हरी! (मुझे अपना) नाम दे (मैं नित्य) जपता रहूँ। मुझ मूर्ख वास्ते मुझ अंधे के लिए (तेरा) नाम सहारा है। हे दास नानक! (कह-) गुरू की शरण पड़ कर ही (परमात्मा का नाम) प्राप्त होता है।4।1।

कलिआनु महला ४ ॥ हरि जनु गुन गावत हसिआ ॥ हरि हरि भगति बनी मति गुरमति धुरि मसतकि प्रभि लिखिआ ॥१॥ रहाउ ॥ गुर के पग सिमरउ दिनु राती मनि हरि हरि हरि बसिआ ॥ हरि हरि हरि कीरति जगि सारी घसि चंदनु जसु घसिआ ॥१॥ हरि जन हरि हरि हरि लिव लाई सभि साकत खोजि पइआ ॥ जिउ किरत संजोगि चलिओ नर निंदकु पगु नागनि छुहि जलिआ ॥२॥ जन के तुम्ह हरि राखे सुआमी तुम्ह जुगि जुगि जन रखिआ ॥ कहा भइआ दैति करी बखीली सभ करि करि झरि परिआ ॥३॥ जेते जीअ जंत प्रभि कीए सभि कालै मुखि ग्रसिआ ॥ हरि जन हरि हरि हरि प्रभि राखे जन नानक सरनि पइआ ॥४॥२॥ {पन्ना 1319}

पद्अर्थ: हरि जनु = परमात्मा का भगत (एक वचन)। हसिआ = प्रसन्नचिक्त रहता है, खिला रहता है। बनी = फबती है, प्यारी लगती है। धुरि = धुर से, धुर दरगाह से, पहले से ही। मसतकि = माथे पर। प्रभि = प्रभू ने।1। रहाउ।

पग = पैर, चरण (बहुवचन)। सिमरउ = मैं सिमरता हूँ। मनि = मन में। कीरति = कीर्ती, सिफत सालाह। जगि = जगत में। सारी = श्रेष्ठ। घसि = घिस के, रगड़ खा के (सुगंधि देता है)। जसु = यश, सिफतसालाह। घसिआ = (मनुष्य के हृदय में) रगड़ खाता है (और नाम की सुगंधि बिखेरता है)।1।

हरि जन = परमात्मा के भगत (बहुवचन)। लिव लाई = सुरति जोड़ी। सभि = सारे। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। खोजि पइआ = पीछे पड़ जाते हैं, निंदा ईष्या करते हैं। किरत = किए हुए काम। किरत संजोगि = पिछले किए कर्मों के संजोग से, पिछले किए कामों के संस्कारों के असर तले। चलिओ = जीवन चाल चलता है। पगु = पैर। नागनि = सपनी, (माया) सर्पनी। जलिआ = जल गया।2।

सुआमी = हे स्वामी! जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही। कहा भइआ = क्या हुआ? कुछ ना बिगाड़ सका। दैति = दैत्य ने। बखीली = ईष्या। झरि परिआ = झड़ पड़ा, गिर गया, आत्मिक मौत मर गया।3।

जेते = जितने भी। प्रभि = प्रभू ने। सभि = सारे। कालै मुखि = काल के मुँह में। ग्रसिआ = पकड़ा गया, फसे हुए हैं। राखे = रक्षा की।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का भगत परमात्मा के गुण गाते हुए प्रसन्न-चिक्त रहता है, गुरू की मति पर चल के परमात्मा की भक्ति उसको प्यारी लगती है। प्रभू ने (ही) धुर-दरगाह से ही उसके माथे पर ये लेख लिखे होते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! मैं दिन-रात उसके चरणों का ध्यान धरता हूँ, (गुरू की कृपा से ही) परमात्मा मेरे मन में आ बसा है। हे भाई! परमात्मा की सिफतसालाह जगत में (सबसे) श्रेष्ठ (पदार्थ) है, (जैसे) चंदन रगड़ खा के (सुगंधि देता है, वैसे ही परमात्मा का) यश (सिफतसालाह मनुष्य के हृदय से) रगड़ खाता है (और, नाम की सुगंधि बिखेरता है)।1।

हे भाई! परमात्मा के भगत सदा परमात्मा में सुरति जोड़े रखते हैं, पर परमात्मा से टूटे हुए सारे मनुष्य उनसे ईष्या करते हैं। (पर, साकत मनुष्य के भी क्या वश?) जैसे-जैसे पिछले किए कर्मों के संस्कारों के असर तले निंदक मनुष्य (निंदा वाली) जीवन-चाल चलता है (त्यों-त्यों उसका आत्मिक जीवन ईष्या की आग से) छू के जलता जाता है। (जैसे किसी मनुष्य का) पैर सपनी से छूह के (सर्पनी के डंक मारने से उसकी) मौत हो जाती है।2।

हे (मेरे) मालिक-प्रभू! अपने भगतों के आप स्वयं रखवाले हो, हरेक जुग में आप (अपने भगतों की) रक्षा करते आए हो। (हर्णाकष्यप) दैत्य ने (भगत प्रहलाद के साथ) ईष्या की, पर (वह दैत्य भगत का) कुछ ना बिगाड़ सका। वह सारी (दैत्य सभा ही) ईष्या कर-कर के अपनी आत्मिक मौत सहेड़ती गई।3।

हे भाई! जितने भी जीव-जंतु प्रभू ने पैदा किए हुए हैं, यह सारे ही (परमात्मा से विछुड़ के) आत्मिक मौत के मुँह में फसे रहते हैं। हे दास नानक! अपने भगतों की प्रभू ने सदा ही स्वयं रक्षा की है, भगत प्रभू की शरण पड़े रहते हैं।4।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh