श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कलिआन महला ४ ॥ मेरे मन जपु जपि जगंनाथे ॥ गुर उपदेसि हरि नामु धिआइओ सभि किलबिख दुख लाथे ॥१॥ रहाउ ॥ रसना एक जसु गाइ न साकै बहु कीजै बहु रसुनथे ॥ बार बार खिनु पल सभि गावहि गुन कहि न सकहि प्रभ तुमनथे ॥१॥ हम बहु प्रीति लगी प्रभ सुआमी हम लोचह प्रभु दिखनथे ॥ तुम बड दाते जीअ जीअन के तुम जानहु हम बिरथे ॥२॥ कोई मारगु पंथु बतावै प्रभ का कहु तिन कउ किआ दिनथे ॥ सभु तनु मनु अरपउ अरपि अरापउ कोई मेलै प्रभ मिलथे ॥३॥ हरि के गुन बहुत बहुत बहु सोभा हम तुछ करि करि बरनथे ॥ हमरी मति वसगति प्रभ तुमरै जन नानक के प्रभ समरथे ॥४॥३॥ {पन्ना 1320}

पद्अर्थ: मन = हे मन! जपु जगंनथे = जगत के नाथ (के नाम) का जाप। जपि = जपा कर। उरदेसि = उपदेश से। सभि = सारे। किलबिख = पाप। दुख = (सारे) दुख।1। रहाउ।

रसना = जीभ। जसु = गुण, सिफत सालाह। कीजै = बना दे। बहु रसुनथे = बहुत सारी रसनाओं के नाथ, बहुत सारी जीभों वाले। बार बार = दोबारा दोबारा। सभि = सारे (जीव)। गावहि = गाते हैं (बहुवचन)। प्रभ = हे प्रभू! तुमनथे = तेरे।1।

हम लोचह = हम तमन्ना करते हैं। दिखनथे = देखने के लिए। जीअ के दाते = जिंद के दाते। जीअन के दाते = सारे जीवों के दाते। बिरथे = (व्यथा) दिल की पीड़ा।2।

मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता। तिन कउ = उन (संत जनों) को। किआ दिनथे = क्या दिया जाए? अरपउ = अर्पित करूँ, मैं भेटा कर दूँ। अरपि = भेटा कर के। अरापउ = अर्पित करूँ, भेटा कर दूँ। प्रभ मिलबे = प्रभू को मिला हुआ।3।

तुछ = बहुत कम। करि = कर के। हम बरनथे = हम जीव बयान करते हैं। वसगति = वश में। प्रभ = हे प्रभू! समरथे = सब ताकतों के मालिक।4।

अर्थ: हे मेरे मन! जगत के नाथ (के नाम) का जाप जपा कर। (जिस मनुष्य ने) गुरू के उपदेश से परमात्मा का नाम सिमरा, उसके सारे पाप सारे दुख दूर हो गए।1। रहाउ।

हे प्रभू! (मनुष्य की) एक जीभ (तेरा) यश (पूरे तौर पर) गा नहीं सकती, (इसको) बहुत जीभों वाला बना दे। हे प्रभू! सारे जीव बार-बार हरेक पल तेरे गुण गाते हैं, पर तेरे (सारे) गुण बयान नहीं कर सकते।1।

हे मेरे मालिक प्रभू! मेरे अंदर तेरे प्रति बहुत सारी प्रीति पैदा हो चुकी है; मैं तुझे देखने की तमन्ना रखता हूँ। हे प्रभू! तू सारे जीवों को जिंद देने वाला है, तू ही हम जीवों के दिल की पीड़ा जानता है।2।

हे भाई! अगर कोई (संत जन मुझे) प्रभू (के मिलाप) का रास्ता बता दे, तो ऐसे (संत-) जनों को क्या देना चाहिए? अगर प्रभू को मिला हुआ कोई प्यारा मुझे प्रभू से मिला दे तो मैं तो अपना सारा तन सारा मन सदा के लिए भेट कर दूँ।3।

हे भाई! परमात्मा के गुण बहुत ही बेअंत हैं, बहुत बेअंत हैं, हम जीव बहुत ही कम बयान करते हैं (पर जीवों के वश की बात नहीं है)। हे दास नानक के समर्थ प्रभू! हम जीवों की मति तेरे वश में है (जितनी मति तू देता है उतनी ही तेरी शोभा हम बयान कर सकते हैं)।4।3।

कलिआन महला ४ ॥ मेरे मन जपि हरि गुन अकथ सुनथई ॥ धरमु अरथु सभु कामु मोखु है जन पीछै लगि फिरथई ॥१॥ रहाउ ॥ सो हरि हरि नामु धिआवै हरि जनु जिसु बडभाग मथई ॥ जह दरगहि प्रभु लेखा मागै तह छुटै नामु धिआइथई ॥१॥ हमरे दोख बहु जनम जनम के दुखु हउमै मैलु लगथई ॥ गुरि धारि क्रिपा हरि जलि नावाए सभ किलबिख पाप गथई ॥२॥ जन कै रिद अंतरि प्रभु सुआमी जन हरि हरि नामु भजथई ॥ जह अंती अउसरु आइ बनतु है तह राखै नामु साथई ॥३॥ जन तेरा जसु गावहि हरि हरि प्रभ हरि जपिओ जगंनथई ॥ जन नानक के प्रभ राखे सुआमी हम पाथर रखु बुडथई ॥४॥४॥ {पन्ना 1320}

पद्अर्थ: मन = हे मन! जपि = जपा कर। अकथ = अ+कथ, जिसके सारे गुण बयान ना किए जा सकें। सुनथई = सुना जाता है। सभु = सारे का सारा। लगि = लग के। जन पीछे = भगत के पीछे। फिरथई = फिरता।1। रहाउ।

धिआवै = सिमरता है। जिसु मथई = जिसके माथे पर। जह = जहाँ। मागै = मांगता है (एक वचन)। छुटै = सुर्खरू होता है। धिआइथई = सिमर के।1।

दोख = ऐब, पाप। जनम जनम के = अनेकों जन्मों के। लगथई = लगा रहता है। गुरि = गुरू ने। हरि जलि = हरी नाम जल में। नावाऐ = स्नान कराया। किलबिख = पाप। गथई = दूर हो गया।2।

रिद = हृदय। कै रिद अंतरि = के दिल में। भजथई = भजता है, भजन करता है, सिमरता है। अउसरु = अवसर, मौका। अंती = आखिरी। तह = वहाँ। साथई = साथी (बन के)।3।

गावहि = गाते हैं। हरि हरि = हे हरी! जगंनथई = जगंनाथ, जगत का नाथ। प्रभ = हे प्रभू! राखे सुआमी = हे रक्षा करने वाले स्वामी! रखु = रक्षा कर। बुडथई = डूबते हुओं को।4।

अर्थ: हे मेरे मन! उस परमात्मा के गुण याद किया कर जो अकथ सुना जा रहा है। धर्म अर्थ काम मोक्ष- (यही है) सारा (मनुष्य का उद्देश्य, पर इनमें से हरेक ही परमात्मा के) भगत के पीछे-पीछे लगा फिरता है।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य के माथे पर बड़े भाग्य (जाग उठते) हैं, वह भगत-जन परमात्मा का नाम सदा सिमरता है। जहाँ (अपनी) दरगाह में परमात्मा (मनुष्य के किए कर्मों का) लेखा माँगता है परमात्मा का नाम सिमर के ही वहाँ मनुष्य सुर्ख-रू होता है।1।

हम जीवों के (अंदर) अनेकों जनमों के ऐब इकठ्ठा हुए पड़े हैं, (हमारे अंदर) दुख (टिका रहता है), अहंकार की मैल लगी रहती है। (जिन भाग्यवान को) गुरू ने मेहर कर कर हरि-नाम-जल में स्नान करा दिया, (उनके अंदर से) पापों विकारों की सारी (मैल) दूर हो गई ।2।

हे भाई! भगत-जनों के हृदय में मालिक-प्रभू बसा रहता है, भगत-जनों ने सदा परमात्मा का नाम जपा है। जहाँ आखिरी वक्त आ बनता है, वहाँ परमात्मा का नाम साथी (बन के) रक्षा करता है।3।

हे हरी! (तेरे) भगत तेरा यश (सदा) गाते रहते हैं। हे जगत के नाथ प्रभू! (तेरे भक्तों ने) सदा तेरा नाम जपा है। हे दास नानक के रखवाले मालिक प्रभू! हम पत्थरों (की तरह) डूबते जीवों की रक्षा कर।4।4।

कलिआन महला ४ ॥ हमरी चितवनी हरि प्रभु जानै ॥ अउरु कोई निंद करै हरि जन की प्रभु ता का कहिआ इकु तिलु नही मानै ॥१॥ रहाउ ॥ अउर सभ तिआगि सेवा करि अचुत जो सभ ते ऊच ठाकुरु भगवानै ॥ हरि सेवा ते कालु जोहि न साकै चरनी आइ पवै हरि जानै ॥१॥ जा कउ राखि लेइ मेरा सुआमी ता कउ सुमति देइ पै कानै ॥ ता कउ कोई अपरि न साकै जा की भगति मेरा प्रभु मानै ॥२॥ हरि के चोज विडान देखु जन जो खोटा खरा इक निमख पछानै ॥ ता ते जन कउ अनदु भइआ है रिद सुध मिले खोटे पछुतानै ॥३॥ तुम हरि दाते समरथ सुआमी इकु मागउ तुझ पासहु हरि दानै ॥ जन नानक कउ हरि क्रिपा करि दीजै सद बसहि रिदै मोहि हरि चरानै ॥४॥५॥ {पन्ना 1320}

पद्अर्थ: चितवनी = सोच, भावनी। जानै = जानता है (एकवचन)। अउरु कोई = कोई और मनुष्य। कहिआ = कहा हुआ। इकु तिलु = रक्ती भर भी। मानै = मानता।1। रहाउ।

तिआगि = त्याग के, छोड़ के। अचुत = (अ+च्युत) अविनाशी। सभ ते ऊच = सबसे ऊँचा। सेवा ते = सेवा भक्ति से। कालु = मौत, आत्मिक मौत। जोहि न सकै = देख नहीं सकती। हरि जानै चरनी = जन जन के चरणों पर।1।

कउ = को। राखि लेइ = रख लेता है। देइ = देता है। पै काने = कान में, बड़े ध्यान से। अपरि न साकै = बराबरी नहीं कर सकता। मानै = प्रवान करता है।2।

चोज = करिश्मे तमाशो। विडान = आश्चर्य। जन = हे जन! निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। ता ते = इसलिए। रिद सुध = शुद्ध हृदय वाले।3।

हरि = हे हरी! समरथ = सब ताकतों के मालिक! मागउ = मैं माँगता हूँ। करि = कर के। दीजै = देह। सद = सदा। रिदै मोहि = मेरे हृदय में। चरानै = चरण।4।

अर्थ: हे भाई! हम जीवों की (हरेक) भावनी को परमात्मा (स्वयं) जानता है। अगर कोई और (निंदक मनुष्य) परमात्मा के भगत की निंदा करता हो, परमात्मा उसका कहा हुआ (निंदा का वचन) रक्ती भर भी नहीं मानता।1। रहाउ।

हे भाई! और हरेक (उम्मीद) छोड़ के उस अविनाशी परमात्मा की भक्ति किया कर, जो सब से ऊँचा मालिक भगवान है। हे भाई! परमात्मा की सेवा-भक्ति की बरकति से आत्मिक मौत (भगत की ओर) देख भी नहीं सकती, वह तो भगत के चरणों में आ गिरती है (भगत के अधीन हो जाती है)।1।

हे भाई! प्यारा मालिक-प्रभू जिस मनुष्य की रक्षा करता है, उसको प्यार से ध्यान से श्रेष्ठ मति बख्शता है। हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य की भगती परवान कर लेता है, कोई और मनुष्य उसकी बराबरी नहीं कर सकता।2।

हे सज्जन! देख, उस परमात्मा के करिश्मे बड़े हैरान करने वाले हैं जो आँख झपकने जितने समय में ही खोटे-खरे मनुष्य को पहचान लेता है। शुद्ध हृदय वाले मनुष्य उसको मिल जाते हैं, खोटे मनुष्य पछताते ही रह जाते हैं। तभी भगत के अंदर आनंद बना रहता है (क्योंकि भगत को प्रभू अपने चरणों में जोड़े रखता है)।3।

हे हरी! तुम सभ दातें देने वाले सभ ताकतों के मालिक हो। हे हरी! मैं तुझसे एक ख़ैर माँगता हूँ। मेहर करके (अपने) दास नानक को (यह दान) दे कि, हे हरी! तेरे चरण मेरे हृदय में सदा बसते रहें।4।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh