श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1321 कलिआन महला ४ ॥ प्रभ कीजै क्रिपा निधान हम हरि गुन गावहगे ॥ हउ तुमरी करउ नित आस प्रभ मोहि कब गलि लावहिगे ॥१॥ रहाउ ॥ हम बारिक मुगध इआन पिता समझावहिगे ॥ सुतु खिनु खिनु भूलि बिगारि जगत पित भावहिगे ॥१॥ जो हरि सुआमी तुम देहु सोई हम पावहगे ॥ मोहि दूजी नाही ठउर जिसु पहि हम जावहगे ॥२॥ जो हरि भावहि भगत तिना हरि भावहिगे ॥ जोती जोति मिलाइ जोति रलि जावहगे ॥३॥ हरि आपे होइ क्रिपालु आपि लिव लावहिगे ॥ जनु नानकु सरनि दुआरि हरि लाज रखावहिगे ॥४॥६॥ छका १ ॥ {पन्ना 1321} पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभू! कीजै क्रिपा = कृपा कर। क्रिपा निधान = हे कृपा के खजाने। हम = हम जीव। गुन गावहिगे = गुण गाएं, गुण गाते रहें। हउ = मैं। करउ = मैं करता हूँ। नित = सदा। मोहि = मुझे। गलि = गले से। लावहिगे = लाएंगे।1। रहाउ। बारिक = बालक, बच्चे। मुगध = मूर्ख। इआन = अंजाने। सुत = पुत्र (एक वचन)। भूलि = भूलता है। बिगारि = बिगाड़ता है। भावहिगे = (बच्चे) प्यारे लगते हैं।1। हरि सुआमी = हे हरी! हे स्वामी! हम पावहगे = हम जीव ले सकते हैं। मोहि = मुझे। ठउर = जगह, आसरा। पहि = पास।2। जो भगत = जो भगत (बहुवचन)। हरि भावहि = हरी को प्यारे लगते हैं। तिना = उनको। हरि भावहिगे = प्रभू जी प्यारे लगते हैं। जोती = प्रभू की जोति में। जोति = जिंद। मिलाइ = मिला के। रलि जावहगे = एक मेक हो जाते हैं।3। आपे = स्वयं ही। होइ = हो के। लिव लावहिगे = लगन पैदा करते हैं। दुआरि = (प्रभू के) दर पर। लाज = इज्जत।4। अर्थ: हे कृपा के खजाने प्रभू! मेहर कर, हम (जीव) तेरे गुण गाते रहें। हे प्रभू! मैं सदा तेरी (मेहर की ही) आस करता रहता हूँ कि प्रभू जी मुझे कब (अपने) गले से लगाएंगे।1। रहाउ। हे भाई! हम जीव मूर्ख अंजान बच्चे हैं, प्रभू पिता जी (हमें सदा) समझाते रहते हैं। पुत्र बार-बार हर वक्त भूलता है बिगड़ता है, पर जगत के पिता को (जीव बच्चे फिर भी) प्यारे (ही) लगते हैं।1। हे हरी! हे स्वामी! जो कुछ तू (स्वयं) देता है, वही कुछ हम ले सकते हैं। (तेरे बिना) मुझे कोई और जगह नहीं सूझती, जिसके पास हम जीव जा सकें।2। हे भाई! जो भगत प्रभू को प्यारे लगते हैं, उनको प्रभू जी प्यारे लगते हैं। (वह भगत) प्रभू की जोति में अपनी जिंद मिला के प्रभू की जोति से एक-मेक हुए रहते हैं।3। हे भाई! प्रभू जी स्वयं ही दयालु हो के (जीवों के अंदर) स्वयं (ही अपना) प्यार पैदा करते हैं। दास नानक प्रभू की शरण पड़ा रहता है, प्रभू के दर पर (गिरा) रहता है। (प्रभू जी दर पर पड़े हुए की) खुद ही इज्जत रखते हैं।4।6। छका ।1। कलिआनु भोपाली महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ पारब्रहमु परमेसुरु सुआमी दूख निवारणु नाराइणे ॥ सगल भगत जाचहि सुख सागर भव निधि तरण हरि चिंतामणे ॥१॥ रहाउ ॥ दीन दइआल जगदीस दमोदर हरि अंतरजामी गोबिंदे ॥ ते निरभउ जिन स्रीरामु धिआइआ गुरमति मुरारि हरि मुकंदे ॥१॥ जगदीसुर चरन सरन जो आए ते जन भव निधि पारि परे ॥ भगत जना की पैज हरि राखै जन नानक आपि हरि क्रिपा करे ॥२॥१॥७॥ {पन्ना 1321} पद्अर्थ: परमेसरु = (परम+ईसुरु) सबसे ऊँचा मालिक। दुख निवारण = दुखों का नाश करने वाला। जाचहि = माँगते हैं (बहुवचन)। सुख सागर = हे सुखों के समुंद्र! भवनिधि = संसार समुंद्र। तरण = जहाज़। भवनिधि तरण = हे संसार समुंद्र से पार लंघाने वाले जहाज़! चिंतामणे = हे हरेक जीव की मनोकामना पूरी करने वाले!।1। रहाउ। जगदीस = हे जगत के ईश! दमोदर = (दाम+उदर। दाम = रस्सी। उदर = पेट, कमर, जिसके कमर पर तगाड़ी लिपटी हुई है) हे प्रभू! ते = वे (बहुवचन)। गुरमति = गुरू की मति पर चल के। मुरारि = (मुर+अरि। मुर दैत्य का वैरी) हे दैत्य दमन! मुकंदे = हे मुक्ति के दाते!।1। पैज = लाज, इज्जत।2। अर्थ: हे नारायण! हे स्वामी! तू (सभ जीवों के) दुख दूर करने वाला पारब्रहम परमेश्वर है। हे हरी! हे सबकी मनोकामना पूरी करने वाले! हे सुखों के समुंद्र! हे संसार-समुद्र के जहाज़! सारे ही भगत (तेरे दर से दातें) माँगते हैं।1। रहाउ। हे दीनों पर दया करने वाले! हे जगत के ईश्वर! हे दामोदर! हे अंतजामी हरी! हे गोबिंद! हे मुरारी! हे मुक्ति दाते हरी! जिन मनुष्यों ने गुरू की मति ले के (तुझे) श्री राम को सिमरा, उनको कोई डर छू नहीं सकता।1। हे दास नानक! (कह- हे भाई!) जो मनुष्य जगत के मालिक के चरणों की शरण में आते हैं, वे मनुष्य संसार-समुंद्र से पार लांघ जाते हैं। प्रभू स्वयं मेहर करके अपने भगतों की लाज रखता है।2।1।7। रागु कलिआनु महला ५ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हमारै एह किरपा कीजै ॥ अलि मकरंद चरन कमल सिउ मनु फेरि फेरि रीझै ॥१॥ रहाउ ॥ आन जला सिउ काजु न कछूऐ हरि बूंद चात्रिक कउ दीजै ॥१॥ बिनु मिलबे नाही संतोखा पेखि दरसनु नानकु जीजै ॥२॥१॥ {पन्ना 1321} पद्अर्थ: हमारै = हमारे ऊपर, मेरे ऊपर। कीजै = करो। अलि = भँवरा, भौरा। मकरंद = (Pollen dust) फूल की अंदर की धूड़, फूल का रस। कमल = कमल फूल। सिउ = साथ। फेरि फेरि = बार बार। रीझै = लिपटा रहे।1। रहाउ। आन = अन्य। जला सिउ = पानियों से। काजु = गर्ज, काम। कछूअै = कोई भी। चात्रिक = पपीहा।1। बिन मिलबे = मिले बिना। संतोखा = शांति। पेखि = देख के। जीजै = जीवित रहे।2। अर्थ: हे प्रभू! मेरे ऊपर मेहर कर कि (जैसे) भौरा फूल के रस से रीझा रहता है, (वैसे ही मेरा मन) (तेरे) सुंदर चरणों के साथ बार-बार लिपटा रहे।1। रहाउ। हे प्रभू! (जैसे) पपीहे को (वर्षा की बूँद के बिना) और पानियों से कोई गरज नहीं होती, वैसे ही मुझे पपीहे को (अपने नाम-अमृत की) बूँद दे।1। हे प्रभू! तेरे मिलाप के बिना (मेरे अंदर) ठंढक नहीं पड़ती, (मेहर कर; तेरा दास) नानक (तेरे) दर्शन कर के आत्मिक जीवन हासिल करता रहे।2।1। कलिआन महला ५ ॥ जाचिकु नामु जाचै जाचै ॥ सरब धार सरब के नाइक सुख समूह के दाते ॥१॥ रहाउ ॥ केती केती मांगनि मागै भावनीआ सो पाईऐ ॥१॥ सफल सफल सफल दरसु रे परसि परसि गुन गाईऐ ॥ नानक तत तत सिउ मिलीऐ हीरै हीरु बिधाईऐ ॥२॥२॥ {पन्ना 1321} पद्अर्थ: जाचिकु = जाचक, मँगता। जाचै = माँगता है। जाचै जाचै = नित्य माँगता रहता है। सरब धार = हे सब जीवों के आसरे! नाइक = हे मालिक! समूह सुख = सारे सुख। दाते = हे देने वाले! ।1। रहाउ। केती केती = बेअंत दुनिया। मांगनि मागै = हरेक माँग माँगती रहती है। भावनीआ = मन की मुराद। पाईअै = प्राप्त कर ली जाती है।1। सफल दरसु = वह जिसका दर्शन सारे फल देने वाला है। रे = हे भाई! परसि = छूह के। परसि परसि = नित्य छू के। गाईअै = आओ गाते रहे। मिलिअै = मिल जाता है। तत तत सिउ = (जैसे पानी आदि) तत्व (पानी) तत्व से। हीरै = हीरे से। हीर बिधाईअै = हीरा भेद लिया जाता है।2। अर्थ: हे सब जीवों के आसरे प्रभू! हे सभ जीवों के मालिक! हे सारे सुखों के देने वाले! (तेरे दर का) मँगता (तेरे दर से) नित्य माँगता रहता है।1। रहाउ। हे भाई! बेअंत लुकाई (प्रभू के दर से) हरेक माँग माँगती रहती है, जो भी मन की मुराद होती है वह हासिल कर ली जाती है।1। हे भाई! प्रभू ऐसा है जिसका दर्शन सारे फल देने वाला है। आओ, उसके चरण सदा छू-छू के उसके गुण गाते रहें। हे नानक! (जैसे पानी आदि) तत्व (पानी) तत्व से मिल जाता है (वैसे ही गुण गाने की बरकति से) मन-हीरा प्रभू-हीरे से भेद लिया जाता है।2।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |