श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1322 कलिआन महला ५ ॥ मेरे लालन की सोभा ॥ सद नवतन मन रंगी सोभा ॥१॥ रहाउ ॥ ब्रहम महेस सिध मुनि इंद्रा भगति दानु जसु मंगी ॥१॥ जोग गिआन धिआन सेखनागै सगल जपहि तरंगी ॥ कहु नानक संतन बलिहारै जो प्रभ के सद संगी ॥२॥३॥ {पन्ना 1322} पद्अर्थ: लालन की = सुंदर लाल की, प्यारे की। सद = सदा। नवतन = नई। मन रंगी = मन को (प्रेम का) रंग देने वाली।1। रहाउ। महेस = शिव। सिध = जोग साधना में माहिर हुए जोगी। जसु = यश, सिफतसालाह।1। सेखनागी = शेश नाग। सगल = (यह) सारे। जपहि = जपते हैं (बहुवचन)। तरंगी = तरंगों वाले को, अनेकों लहरों के मालिक हरी को। सद = सदा। संगी = साथी।2। अर्थ: हे भाई! मेरे सुंदर प्रभू की शोभा-वडिआई सदा ही नई (रहती है, आकर्षित करती रहती है, और) सदा ही मन को (प्यार का) रंग चढ़ाती रहती है।1। रहाउ। हे भाई! ब्रहमा, शिव, सिद्ध, मुनि, इंद्र (आदि देवते) - यह सारे (प्रभू के दर से उसकी) भगती का दान माँगते हें, उसकी सिफतसालाह की दाति माँगते रहते हैं।1। हे भाई! जोगी, ज्ञानी, ध्यानी, शेशनाग (आदि ये) सारे उस अनेकों करिश्मों के मालिक-प्रभू का नाम जपते रहते हैं। हे नानक! कह- मैं उन संत जनों पर से कुर्बान जाता हूँ, जो परमात्मा के सदा साथी बने रहते हैं।2।3। कलिआन महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तेरै मानि हरि हरि मानि ॥ नैन बैन स्रवन सुनीऐ अंग अंगे सुख प्रानि ॥१॥ रहाउ ॥ इत उत दह दिसि रविओ मेर तिनहि समानि ॥१॥ जत कता तत पेखीऐ हरि पुरख पति परधान ॥ साधसंगि भ्रम भै मिटे कथे नानक ब्रहम गिआन ॥२॥१॥४॥ {पन्ना 1322} पद्अर्थ: तेरै मानि = तेरे (दिए) मान से। मानि = मान से, प्यार की बरकति से। हरि = हे हरी! मानि = तेरे बख्शे प्रेम से। नैन = आँखों से (तेरा दर्शन करते हैं)। बैन = बचनों से (तेरा यश गाया जाता है)। स्रवन सुनीअै = कानों से (तेरी सिफतसालाह) सुनी जाती है। अंग अंगे = हरेक अंग में। प्रानि = (हरेक) सांस के साथ।1। रहाउ। इत = यहाँ। उत = वहाँ। इत उत = यहाँ वहाँ, हर जगह। दह दिसि = दसों तरफ, सारे जगत में। रविओ = व्यापक (प्रतीत होता है)। मेर = सुमेर पर्वत। तिनहि = तृण में, तिनके में। समानि = एक जैसा।1। जत = जहाँ। कता = कहाँ। तत = तहाँ। जत कता तत = जहाँ कहाँ तहाँ, हर जगह। पेखीअै = देख लिया जाता है। पुरख पति = पुरखों का पति। साध संगि = साध-संगति। भै = (शब्द 'भउ' से बहुवचन) सारे डर। कथे = कथि, कथन कर के, कह के। ब्रहम गिआन = परमात्मा से सांझ के वचन, परमात्मा के गुण।2। अर्थ: हे हरी! तेरे (बख्शे हुए) प्यार की बरकति से, हे हरी! तेरे दिए प्रेम से; आँखों से (तेरे दर्शन हर जगह कर लेते हैं) वचनों से (तेरी सिफत-सालाह कर ली जाती है) कानों से (तेरी सिफत-सालाह) सुन ली जाती है, हरेक अंग में हरेक साँस के साथ आनंद (प्राप्त होता है)।1। रहाउ। हे भाई! (प्रभू से मिले प्यार की बरकति से वह प्रभू) हर जगह दसों दिशाओं में व्यापक दिख दे जाता है, सुमेर पर्वत और तीले में एक समान।1। हे नानक! साध-संगति में परमात्मा की सिफत-सालाह करने से सारे भ्रम सारे डर मिट जाते हैं, वे प्रधान-पुरख वह सारे जीवों का मालिक हरी हर जगह बसता दिखाई देने लग जाता है।2।1।4। कलिआन महला ५ ॥ गुन नाद धुनि अनंद बेद ॥ कथत सुनत मुनि जना मिलि संत मंडली ॥१॥ रहाउ ॥ गिआन धिआन मान दान मन रसिक रसन नामु जपत तह पाप खंडली ॥१॥ जोग जुगति गिआन भुगति सुरति सबद तत बेते जपु तपु अखंडली ॥ ओति पोति मिलि जोति नानक कछू दुखु न डंडली ॥२॥२॥५॥ {पन्ना 1322} पद्अर्थ: गुन = (परमात्मा के) गुण (गाने)। नाद = (जोगियों के) नाद (बजाने हैं)। धुनि = रौंअ, धुन। धुनि आनंद = (गुण गाने से पैदा हुई) आनंद की धुन। कथत = (प्रभू के गुण) कहते हैं। मुनि जना = वह सेवक जिन्होंने अपने मन को विकारों से चुप करा लिया है। मिलि = मिल के। संत मंडली = साध-संगति में।1। रहाउ। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। धिआन = (प्रभू चरणों में जुड़ी) सुरति। मान = आदर, (नाम से) प्यार। दान = (नाम का औरों को) बाँटना। रसिक = रसिए । (नोट: शब्द 'रसिक' और 'रसकि' में फर्क है। रसिक = रसिए (विशेषण)। रसकि = रस से)। मन रसिक = रसिए मन। जपत = जपते हैं। तह = वहाँ, उस साध-संगति में। खंडली = नाश हो जाते हैं।1। जोग = (प्रभू से) मिलाप। जोग जुगति = प्रभू से मिलाप का ढंग। जोग जुगति तत बेते = प्रभू के साथ मिलाप की जुगति के भेद जानने वाले। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। भुगति = (आत्मिक) खुराक। गिआन भुगति = आत्मिक जीवन की सूझ-रूप आत्मिक खुराक। गिआन भुगति तत बेते = आत्मिक जीवन की सूझ-रूप आत्मिक खुराक के भेद को जानने वाले। सुरति सबद तत बेते = गुरू के शबद की लगन के भेद को जानने वाले। अखंडली = एक सार, सदा। ओति = उना हुआ, उने हुए में। पोत = परोया हुआ, प्रोत, परोए हुए में। ओति पोति = उने हुए परोए हुए में, ताने पेटे की तरह। मिलि = मिल के। न डंडली = दण्ड नहीं देता।2। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के) गुण (गाने, जोगियों के) नाद (बजाने हैं), (प्रभू के गुण गाने से पैदा हुई) आनंद की धुनि (ही) वेद हैं। हे भाई! वे सेवक जिन्होंने अपने मन को विकारों से चुप करा लिया होता है साध-संगति में मिल के यही गुण गाते हैं और सुनते हैं।1। रहाउ। हे भाई! (साध-संगति में जहाँ) आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त होती है, जहाँ प्रभू-चरणों में सुरति जुड़ती है, जहाँ हरी-नाम के साथ प्यार बनता है, जहाँ हरी-नाम औरों को बाँटा जाता है, वहाँ रसिए मन (अपनी) जीभ से नाम जपते हैं, वहाँ सारे पाप नाश हो जाते हैं।1। हे नानक! प्रभू से मिलाप की जुगति के भेद को जानने वाले, आत्मिक जीवन की सूझ-रूप आत्मिक खुराक के भेद को जानने वाले, गुरू के शबद की लगन के भेद को जानने वाले मनुष्य (साध-संगति में टिक के यही नाम-सिमरन का) जप और तप सदा करते हैं, वह मनुष्य ईश्वरीय ज्योति से मिल के ताने-पेटे की तरह (उसके साथ) एक-रूप हो जाते हैं, (उनको) कोई भी दुख दुखी नहीं कर सकता।2।2।5। कलिआनु महला ५ ॥ कउनु बिधि ता की कहा करउ ॥ धरत धिआनु गिआनु ससत्रगिआ अजर पदु कैसे जरउ ॥१॥ रहाउ ॥ बिसन महेस सिध मुनि इंद्रा कै दरि सरनि परउ ॥१॥ काहू पहि राजु काहू पहि सुरगा कोटि मधे मुकति कहउ ॥ कहु नानक नाम रसु पाईऐ साधू चरन गहउ ॥२॥३॥६॥ {पन्ना 1322} पद्अर्थ: कउन बिधि = कौन सी विधि है? कौन सा तरीका है? ता की = उस (प्रभू के मिलाप) की। कहा करउ = मैं क्या कहूँ? धरत = धरते हैं। धिआनु = समाधि। धरत धिआनु = कई समाधि लगाए रहते हैं। ससत्रगिआ = शास्त्रज्ञ, शास्त्रों का ज्ञाता। गिआनु = शास्त्रों की चर्चा। अजर = ना सहा जा सकने वाला। पदु = दर्जा। अजर पदु = वह आत्मिक अवस्था जो अब सही नहीं जा सकती। जरउ = मैं सहूँ।1। रहाउ। महेस = शिव, महेश। सिध = सिद्ध, जोग साधना में माहिर जोगी। कै दरि = किस के दर पे? परउ = मैं पड़ूँ।1। काहू पहि = किसी के पास। कोटि मधे = करोड़ों में से (कोई विरला)। मुकति = विकारों से खलासी। कहउ = मैं कह सकता हूँ। नानक = हे नानक! पाईअै = हासिल कर सकते हैं। साध = गुरू। गहउ = मैं पकड़ता हूँ। अर्थ: हे भाई! (विकारों से मुक्ति परमात्मा के नाम-रस की बरकति से ही हो सकती है। सो,) उस (परमात्मा के मिलाप) का मैं कौन सा तरीका इस्तेमाल करूँ, मैं कौन सा उद्यम करूँ (अनेकों ऐसे हैं जो) समाधियाँ लगाते हैं, (अनेकों ऐसे हैं जो) शास्त्र-वेक्ता शास्त्रार्थ करते रहते हैं (पर, इन तरीकों से विकारों से मुक्ति नहीं मिलती। विकारों का दबाव पड़ा ही रहता है, और, यह) एक ऐसी (ढली हुई, क्षीण) आत्मिक अवस्था है जो (अब) सही नहीं जा सकती। मैं इसको सह नहीं सकता (मैं इसको अपने अंदर बने नहीं रहने दे सकता)।1। रहाउ। हे भाई! विष्णु, शिव, सिद्ध, मुनि, इन्द्र देवता (अनेकों ही सुने हैं वर देने वाले। पर विकारों से मुक्ति हासिल करने के लिए इनमें से) मैं किस के दर पर जाऊँ? मैं किस की शरण पड़ूँ?।1। हे भाई! किसी के पास राज (देने की ताकत सुनी जाती) है, किसी के पास स्वर्ग (देने की समर्था सुनी जा रही) है। पर, करोड़ों में से कोई विरला ही (ऐसा हो सकता है, जिसके पास जा के) मैं (यह) कहूँ (कि) विकारों से मुक्ति (मिल जाए)। हे नानक! कह- (मुक्ति हरी-नाम से ही मिलती है, और) नाम का स्वाद (तब ही) मिल सकता है (जब) मैं गुरू के चरण (जा) पकड़ूँ।2।3।6। कलिआन महला ५ ॥ प्रानपति दइआल पुरख प्रभ सखे ॥ गरभ जोनि कलि काल जाल दुख बिनासनु हरि रखे ॥१॥ रहाउ ॥ नाम धारी सरनि तेरी ॥ प्रभ दइआल टेक मेरी ॥१॥ अनाथ दीन आसवंत ॥ नामु सुआमी मनहि मंत ॥२॥ तुझ बिना प्रभ किछू न जानू ॥ सरब जुग महि तुम पछानू ॥३॥ हरि मनि बसे निसि बासरो ॥ गोबिंद नानक आसरो ॥४॥४॥७॥ {पन्ना 1322} पद्अर्थ: प्रानपति = हे जिंद के मालिक! दइआल पुरख = हे दया के घर अकाल पुरख! सखे = हे मित्र! काल = मौत, आत्मिक मौत। काल जाल = आत्मिक मौत लाने वाले फंदे। रखे = रखवाला।1। रहाउ। धारी = धारण करने वाला। नाम धारी = तेरे नाम का धारनी, तेरे नाम को मन में बसाए रखने वाला। प्रभ = हे प्रभू! टेक = सहारा।1। अनाथ = निमाणे। दीन = गरीब। आसवंत = (तेरे सहारे की) आस रखने वाला। सुआमी = हे स्वामी! मनहि = मन में। मंत = मंत्र, उपदेश।2। प्रभ = हे प्रभू! जानू = मैं नहीं जानता। पछानू = जान पहचान का, मित्र।3। मनि = मन में। निसि = रात। बासरो = दिन।4। अर्थ: हे (जीवों की) जिंद के मालिक! हे दया के घर पुरख प्रभू! हे मित्र! हे हरी! तू ही गर्भ-जोनि का नाश करने वाला है (जूनियों के चक्करों में से निकालने वाला है), तू ही झगड़े-कलेशों का नाश करने वाला है, तू ही आत्मिक मौत लाने वाला मोह के फंदे काटने वाला है, तू ही दुखों को नाश करने वाला है, तू ही रखवाला है।1। रहाउ। हे दयालु प्रभू! मैं तेरी शरण आया हूँ, (मेहर कर, मैं तेरा) नाम (अपने अंदर) बसाए रखूँ, मुझे एक तेरा ही सहारा है।1। हे स्वामी! निमाणे और गरीब (एक तेरी ही सहायता की) आस रखते हैं। (मेहर कर, तेरा) नाम-मंत्र (मेरे) मन में (टिका रहे)।2। हे प्रभू! तेरी शरण पड़े रहने के बिना मैं और कुछ भी नहीं जानता। सारे जुगों में तू ही (हम जीवों का) मित्र है।3। हे हरी! दिन-रात (मेरे) मन में टिका रह। हे गोबिंद! तू ही नानक का आसरा है।4।4।7। कलिआन महला ५ ॥ मनि तनि जापीऐ भगवान ॥ गुर पूरे सुप्रसंन भए सदा सूख कलिआन ॥१॥ रहाउ ॥ सरब कारज सिधि भए गाइ गुन गुपाल ॥ मिलि साधसंगति प्रभू सिमरे नाठिआ दुख काल ॥१॥ करि किरपा प्रभ मेरिआ करउ दिनु रैनि सेव ॥ नानक दास सरणागती हरि पुरख पूरन देव ॥२॥५॥८॥ {पन्ना 1322} पद्अर्थ: मनि = मन मे। तनि = तन में, हृदय में। जापीअै = जपना चाहिए। सुप्रसंन = बहुत दयालु। कलिआन = सुख, आनंद।1। रहाउ। सिधि = सफलता। गाइ = गा के। मिलि = मिल के। नाठिआ = भाग गए। दुख काल = मौत के दुख, आत्मिक मौत के दुख।1। प्रभ = हे प्रभू! करउ = करूँ, मैं करता रहूँ। रैनि = रात। सेव = सेवा भगती। सरणागती = शरण आया है। हरि = हे हरी! पूरन देव = हे सर्वगुण संपन्न देव!।2। अर्थ: हे भाई! मन में हृदय में (सदा) भगवान (का नाम) जपते रहना चाहिए। हे भाई! (जिस मनुष्य पर) पूरे सतिगुरू जी दयालु होते हैं (वह मनुष्य भगवान का नाम जपता है, जिसकी बरकति से उसके अंदर) सदा सुख-आनंद (बना रहता है)।1। रहाउ। हे भाई! सृष्टि के पालनहार प्रभू के गुण गा के (मनुष्य को अपने) सारे कामों में सफलता हासिल हो जाती है। जिस मनुष्य ने साध-संगति में मिल के प्रभू जी का नाम सिमरा उसकी आत्मिक मौत से पैदा होने वाले सारे दुख नाश हो जाते हैं।1। हे दास नानक! (कह-) हे मेरे प्रभू! हे हरी! हे पुरख! हे सर्व-गुण-संपन्न देव! मैं तेरी शरण आया हूँ; मेहर कर, दिन-रात मैं तेरी भगती करता रहूँ।2।5।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |