श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1323

कलिआनु महला ५ ॥ प्रभु मेरा अंतरजामी जाणु ॥ करि किरपा पूरन परमेसर निहचलु सचु सबदु नीसाणु ॥१॥ रहाउ ॥ हरि बिनु आन न कोई समरथु तेरी आस तेरा मनि ताणु ॥ सरब घटा के दाते सुआमी देहि सु पहिरणु खाणु ॥१॥ सुरति मति चतुराई सोभा रूपु रंगु धनु माणु ॥ सरब सूख आनंद नानक जपि राम नामु कलिआणु ॥२॥६॥९॥ {पन्ना 1323}

पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल में पहुँच जाने वाला। जाणु = जानने वाला। परमेसर = हे परमेश्वर। सचु = सदा कायम रहने वाला। नीसाणु = परवाना, राहदारी।1। रहाउ।

समरथु = ताकत वाला। मनि = मन में। ताणु = सहारा। घट = शरीर। दाते = हे दातार! देहि = जो कुछ तू देता है।

चतुराई = समझदारी। माणु = इज्जत। सरब = सारे। जपि = जपा कर। कलिआणु = सुख।2।

अर्थ: हे सर्व-गुण-संपन्न परमेश्वर! तू मेरा प्रभू है, तू मेरे दिल की जानने वाला है। मेहर कर, मुझे सदा अटल कायम रहने वाला (अपनी सिफत-सालाह का) शबद (बख्श। तेरे चरणों में पहुँचने के लिए यह शबद ही मेरे लिए) परवाना है।1। रहाउ।

हे सभ जीवों को दातें देने वाले स्वामी! खाने और पहनने को जो कुछ तू हमें देता है, वही हम बरतते हैं। तेरे बिना, हे हरी! कोई और (इतनी) समर्थता वाला नहीं है। (मुझे सदा) तेरी (सहायता की ही) आस (रहती है, मेरे) मन में तेरा ही सहारा रहता है।1।

हे नानक! (सदा) परमात्मा का नाम जपा कर, (नाम जपने की बरकति से ही ऊँची) सुरति (ऊँची) मति, (सदाचारी जीवन वाली) समझदारी (लोक-परलोक की) महिमा (वडिआई), (सुंदर आत्मिक) रूप रंग, धन, इज्जत, सारे सुख, आनंद (ये सारी दातें प्राप्त होती हैं)।2।6।9।

कलिआनु महला ५ ॥ हरि चरन सरन कलिआन करन ॥ प्रभ नामु पतित पावनो ॥१॥ रहाउ ॥ साधसंगि जपि निसंग जमकालु तिसु न खावनो ॥१॥ मुकति जुगति अनिक सूख हरि भगति लवै न लावनो ॥ प्रभ दरस लुबध दास नानक बहुड़ि जोनि न धावनो ॥२॥७॥१०॥ {पन्ना 1323}

पद्अर्थ: कलिआन = कल्याण, सुख, आत्मिक आनंद। कलिआन करन = आत्मिक आनंद पैदा करने वाली, कल्याणकारी। प्रभ नामु = परमात्मा का नाम। पतित = विकारों में गिरे हुए। पावन = पवित्र (करने वाला)। पतित पावनो = विकारियों को पवित्र करने वाला।1। रहाउ।

साध संगि = साध संग में। जपि = जपे, जो जपता है। निसंग = शर्म उतार के। जमकालु = मौत, आत्मिक मौत।1।

मुकति जुगति अनिक = मुक्ति प्राप्त करने की अनेकों जुगतियां। अनिक सूख = अनेकों सुख। लवै न लावनो = बराबरी नहीं कर सकते। लुबध = लुब्ध, प्रेमी, तमन्ना रखने वाला। बहुड़ि = दोबारा। धावनो = भटकना।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरणों की शरण (सारे) सुख पैदा करने वाली है। हे भाई! परमात्मा का नाम विकारियों को पवित्र बनाने वाला है।1। रहाउ।

हे भाई! (जो मनुष्य) साधसंगति में श्रद्धा से नाम जपता है, उसको मौत का डर भय-भीत नहीं कर सकता (उसके आत्मिक जीवन को आत्मिक मौत खत्म नहीं कर सकती)।1।

हे दास नानक! (कह-) मुक्ति प्राप्त करने के लिए अनेकों जुगतियां और अनेकों सुख परमात्मा की भगती की बराबरी नहीं कर सकते। परमात्मा के दीदार का मतवाला मनुष्य दोबारा जूनियों के चक्करों में नहीं भटकता।2।7।10।

कलिआन महला ४ असटपदीआ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रामा रम रामो सुनि मनु भीजै ॥ हरि हरि नामु अम्रितु रसु मीठा गुरमति सहजे पीजै ॥१॥ रहाउ ॥ कासट महि जिउ है बैसंतरु मथि संजमि काढि कढीजै ॥ राम नामु है जोति सबाई ततु गुरमति काढि लईजै ॥१॥ नउ दरवाज नवे दर फीके रसु अम्रितु दसवे चुईजै ॥ क्रिपा क्रिपा किरपा करि पिआरे गुर सबदी हरि रसु पीजै ॥२॥ काइआ नगरु नगरु है नीको विचि सउदा हरि रसु कीजै ॥ रतन लाल अमोल अमोलक सतिगुर सेवा लीजै ॥३॥ सतिगुरु अगमु अगमु है ठाकुरु भरि सागर भगति करीजै ॥ क्रिपा क्रिपा करि दीन हम सारिंग इक बूंद नामु मुखि दीजै ॥४॥ {पन्ना 1323}

पद्अर्थ: रम = रमा हुआ, सर्व व्यापक। सुनि = सुन के। भीजै = (प्रेम जल से) भीग जाता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में टिक के। पीजै = पीया जा सकता है।1। रहाउ।

कासट = लकड़ी। महि = में। बैसंतरु = आग। मथि = मथ के। संजमि = संयम से, विउंत से। काढि कढीजै = तरीका खोज सकते हैं, पैदा कर लेते हैं। सबाई = सारी (सृष्टि में)। ततु = निचोड़, भेद, अस्लियत।1।

नवे = नौ ही। दसे = दसवें (दरवाजे) से। चुईजै = टपकाया जाता है, चूआ जाता है। पिआरे = हे प्यारे! सबदी = शबद से। पीजै = पी सकते हैं।2।

काइआ = शरीर। नीको = अच्छा, सोहणा। विचि = (काया के) अंदर। कीजै = करना चाहिए। अमोल = जो किसी मूल्य से नहीं मिल सकता। लीजै = हासिल कर सकते हैं।3।

अगमु = अपहुँच। भरि = भरा हुआ (अमूल्य रत्नों लालों से)। भरि सागर भगति = (अमूल्य लाल रत्नों से) भरे हुए समुंद्र-प्रभू की भगती। करीजै = की जा सकती है। दीन = निमाणे। सारिंग = पपीहे। मुखि = (मेरे) मुँह में। दीजै = दे।4।

अर्थ: हे भाई! सर्व-व्यापक परमात्मा (का नाम) सुन के (मनुष्य का) मन (प्रेम-जाल से) भीग जाता है। यह हरी-नाम आत्मिक जीवन देने वाला है और स्वादिष्ट है। यह हरी-नाम-जल गुरू की मति से आत्मिक अडोलता में (टिक के) पीया जा सकता है।1। रहाउ।

हे भाई! जैसे (हरेक) लकड़ी में आग (छुपी रहती) है, (पर जुगति से उद्यम करके प्रकट की जाती है), वैसे ही परमात्मा का नाम (ऐसा) है (कि इसकी) ज्योति सारी सृष्टि में (गुप्त) है, इस सच्चाई को गुरू की मति द्वारा ही समझा जा सकता है।1।

हे भाई! (मनुष्य शरीर के) नौ दरवाजे हैं (जिनसे मनुष्य का संबन्ध बाहरी दुनिया से बना रहता है, पर) ये नौ दरवाजे ही (नाम-रस से) रूखे (बे-रसे बने) रहते हैं। आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम-रस दसवें दरवाजे (दिमाग) से ही (मनुष्य के अंदर प्रकट होता है, जैसे अर्क आदि) चूता है (रिसता है)। हे प्यारे प्रभू! (अपने जीवों पर) सदा ही मेहर कर, (अगर तू मेहर करे तो) गुरू के शबद की बरकति से यह हरी-नाम-रस पीया जा सकता है।2।

हे भाई! मनुष्य शरीर (मानो, एक) शहर है, इस (शरीर-शहर) में हरी-नाम-रस (विहाजने का) वणज करते रहना चाहिए। हे भाई! (ये हरी-नाम-रस मानो) अमूल्य रत्न-लाल है, (यह हरी-नाम-रस) गुरू की शरण पड़ने से ही हासिल किया जा सकता है।3।

हे भाई! गुरू अपहुँच परमात्मा (का रूप) है। (अमूल्य रत्नों-लालों से) भरे हुए समुंद्र (प्रभू) की भगती (गुरू की शरण पड़ कर ही) की जा सकती है। हे प्रभू! हम जीव (तेरे दर के) निमाणे पपीहे हैं। मेहर कर मेहर कर (जैसे पपीहे को वर्षा की) एक बूँद (की प्यास रहती है, वैसे मुझे तेरे नाम-जल की प्यास है, मेरे) मुँह में (अपना) नाम (-जल) दे।4।

लालनु लालु लालु है रंगनु मनु रंगन कउ गुर दीजै ॥ राम राम राम रंगि राते रस रसिक गटक नित पीजै ॥५॥ बसुधा सपत दीप है सागर कढि कंचनु काढि धरीजै ॥ मेरे ठाकुर के जन इनहु न बाछहि हरि मागहि हरि रसु दीजै ॥६॥ साकत नर प्रानी सद भूखे नित भूखन भूख करीजै ॥ धावतु धाइ धावहि प्रीति माइआ लख कोसन कउ बिथि दीजै ॥७॥ हरि हरि हरि हरि हरि जन ऊतम किआ उपमा तिन्ह दीजै ॥ राम नाम तुलि अउरु न उपमा जन नानक क्रिपा करीजै ॥८॥१॥ {पन्ना 1323}

पद्अर्थ: लालनु = सोहणा लाल, सुंदर हरी नाम। रंगनु = सुदर रंग। गुर = हे गुरू! दीजै = दे। रंगि = रंग में। राते = रंगे हुए हैं। रस रसिक = नाम के रसिए। गटक = गट गट कर के, स्वाद से। पीजै = पीना चाहिए।5।

बसुधा = धरती। सपत = सात। दीप = द्वीप, टापू, जजीरा। सागर = (सात) समुंद्र। कंचनु = सोना। इनहु = इन कीमती पदार्थों को। बाछहि = चाहते हैं। मागहि = माँगते हैं। दीजै = दे।6।

साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। सद = सदा। भूखे = माया की लालच में फंसे हुए। भूखन भूख करीजै = (माया की) भूख की ही रट लगाई जाती है। धावतु = भटकते हुए। धाइ = भटक के। धावहि धाइ धावहि = भटकते हुए भटक के भटकते हैं, सदा भटकते फिरते हैं। लख कोसन कउ = लाखों कोसों को। बिथि दीजै = दूरी बना ली जाती है।7।

हरि जन = परमात्मा के भगत। किआ उपमा = क्या वडिआई? दीजै = दी जाए। तुलि = बराबर। अउर उपमा = कोई और वडिआई। क्रिपा करीजै = कृपा करें।8।

अर्थ: हे भाई! सुंदर हरी (-नाम) बड़ा सुंदर रंग है। हे गुरू! (मुझे अपना) मन रंगने के लिए (यह हरी-नाम रंग) दे। हे भाई! (जिन मनुष्यों को यह नाम-रंग मिल जाता है, वह) सदा के लिए परमात्मा के (नाम-) रंग में रंगे रहते हैं, (वह मनुष्य नाम-) रस के रसिए (बन जाते हैं)। हे भाई! (यह नाम-रस) गट-गट कर के सदा पीते रहना चाहिए।5।

हे भाई! (जितनी भी) सात टापूओं वाली और सात समुंद्रों वाली धरती है (अगर इसको) खोद के (इसमें से सारा) सोना निकाल के (बाहर) रख दिया जाए, (तो भी) मेरे मालिक-प्रभू के भगत-जन (सोना आदि) इन (कीमती पदार्थों) की तमन्ना नहीं रखते, वे सदा परमात्मा (का नाम ही) माँगते रहते हैं। हे गुरू! (मुझे भी) परमात्मा के नाम का रस ही बख्श।6।

हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य सदा माया के लालच में फसे रहते हैं, (उनके अंदर) सदा (माया की) भूख (माया की) भूख की पुकार जारी रहती है। माया के आकर्षण के कारण वे सदा ही भटकते फिरते हैं। (माया एकत्र करने की खातिर अपने मन और परमात्मा के बीच) लाखों कोसों की दूरी को बना लिया जाता है।7।

हे भाई! सदा हरी का नाम जपने की बरकति से परमातमा के भगत उच्च जीवन वाले बन जाते हैं, उनकी महिमा कथन नहीं की जा सकती। परमात्मा के नाम के बराबर और कोई पदार्थ है ही नहीं। हे प्रभू! (अपने) दास नानक पर मेहर कर (और अपना नाम बख्श)।8।1।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh