श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1324 कलिआन महला ४ ॥ राम गुरु पारसु परसु करीजै ॥ हम निरगुणी मनूर अति फीके मिलि सतिगुर पारसु कीजै ॥१॥ रहाउ ॥ सुरग मुकति बैकुंठ सभि बांछहि निति आसा आस करीजै ॥ हरि दरसन के जन मुकति न मांगहि मिलि दरसन त्रिपति मनु धीजै ॥१॥ माइआ मोहु सबलु है भारी मोहु कालख दाग लगीजै ॥ मेरे ठाकुर के जन अलिपत है मुकते जिउ मुरगाई पंकु न भीजै ॥२॥ चंदन वासु भुइअंगम वेड़ी किव मिलीऐ चंदनु लीजै ॥ काढि खड़गु गुर गिआनु करारा बिखु छेदि छेदि रसु पीजै ॥३॥ आनि आनि समधा बहु कीनी पलु बैसंतर भसम करीजै ॥ महा उग्र पाप साकत नर कीने मिलि साधू लूकी दीजै ॥४॥ {पन्ना 1324} पद्अर्थ: राम = हे राम! हे हरी! पारसु = वह पत्थर जिसको छू के लोहा सोना बन जाता है ऐसा माना जाता है। परसु = (गुरू को) छू। करीजै = कर दे। हम = हम जीव। निरगुणी = गुण हीन। मनूर = जला हुआ लोहा। अति फीके = बहुत रूखे जीवन वाले। मिलि सतिगुर = गुरू को मिल के। कीजै = (यह मेहर) कर।1। रहाउ। सभि = सारे लोक। बांछहि = माँगते हैं। नित = नित्य, सदा। करीजै = की जा रही है। मिलि = (हरी को) मिल के। दरसन त्रिपति = हरी के दर्शन की तृप्ति के साथ। धीजै = धीरज में आ जाता है, शांत हो जाता है।1। सबलु = बलवान। कालख दाग = विकारों की कालिख़ का दाग़। अलिपत = निर्लिप। मुकते = विकारों से बचे हुए। पंकु = पंख, खंभ।2। वासु = खुशबू। भुइअंगम = साँप। वेड़ी = घिरी हुई। किव = किस तरह। मिलीअै = मिल सकते हैं। लीजै = लिया जा सकता है। खड़गु = तलवार। गुर गिआनु = गुरू का दिया हुआ ज्ञान। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। करारा = तगड़ा, तेज़धार। बिखु = जहर। छेदि = काट के। पीजै = पीया जा सकता है।3। आनि = ला के। आनि आनि = ला ला के। समधा = लकड़ियों का ढेर। बैसंतर = आग। भसम = राख। करीजै = किया जा सकता है। उग्र = बज्र, बड़े। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। मिलि साधू = गुरू को मिल के। लूकी = लूती, चिंगारी लगाना, चुगली, भड़काना। दीजै = दी जा सकती है।4। अर्थ: हे हरी! गुरू (ही असल) पारस है, (मेरा गुरू से) स्पर्श करा दे (अर्थात मुझे गुरू मिलवा दे)। हम जीव गुण-हीन हैं, जला हुआ लोहा हैं, बड़े रूखे जीवन वाले हैं। (यह मेहर) कर कि गुरू को मिल के पारस (बन जाएं)।1। हे भाई! सारे लोग स्वर्ग मुक्ति बैकुंठ (ही) माँगते रहते हैं, सदा (स्वर्ग मुक्ति बैकुंठ की ही) आस की जा रही है। पर परमात्मा के दर्शनों के प्रेमी भगत मुक्ति नहीं माँगते। (परमात्मा को) मिल के (परमात्मा के) दर्शनों की तृप्ति से (उनका) मन शांत बना रहता है।1। हे भाई! (संसार में) माया का मोह बहुत बलवान है, (माया का) मोह (जीवों के मन में विकारों की) कालिख़ का दाग़ लगा देता है। परमात्मा के भगत (माया के मोह से) निर्लिप रहते हें, विकारों से बचे रहते हैं, जैसे बटेर (मुर्गाई) के पंख (पानी में) भीगते नहीं।2। हे भाई! चंदन की खुशबू साँपों से घिरी रहती है। (चँदन को) कैसे मिला जा सकता है? चँदन को कैसे हासिल किया जा सकता है? (मनुष्य की जिंद विकारों में घिरी रहती है, प्रभू-मिलाप की सुगंधि मनुष्य को प्राप्त नहीं होती)। गुरू का बख्शा हुआ (आत्मिक जीवन की सूझ का) ज्ञान तेज़धार खड़ग (है, ये खड़ग) निकाल के (आत्मिक जीवन को मारने वाली माया के मोह का) जहर (जड़ों से) काट-काट के नाम-रस पीया जा सकता है।3। हे भाई! (लकड़ियाँ) ला-ला के लकड़ियों का बड़ा ढेर इकट्ठा किया जाए (उसको) आग (की एक चिंगारी) पल भर में राख कर सकती है। परमातमा से टूटे हुए मनुष्य बड़े-बड़े बज्र पाप करते हैं, (उन पापों को जलाने के लिए) गुरू को मिल के (हरी-नाम की आग की) लूती लगाई जा सकती है।4। साधू साध साध जन नीके जिन अंतरि नामु धरीजै ॥ परस निपरसु भए साधू जन जनु हरि भगवानु दिखीजै ॥५॥ साकत सूतु बहु गुरझी भरिआ किउ करि तानु तनीजै ॥ तंतु सूतु किछु निकसै नाही साकत संगु न कीजै ॥६॥ सतिगुर साधसंगति है नीकी मिलि संगति रामु रवीजै ॥ अंतरि रतन जवेहर माणक गुर किरपा ते लीजै ॥७॥ मेरा ठाकुरु वडा वडा है सुआमी हम किउ करि मिलह मिलीजै ॥ नानक मेलि मिलाए गुरु पूरा जन कउ पूरनु दीजै ॥८॥२॥ {पन्ना 1324} पद्अर्थ: साधू = अपने मन को वश में रखने वाले मनुष्य। नीके = भले, अच्छे, नेक। जिन अंतरि = जिन के अंदर। परसनि = (हरी के नाम की) छोह से। परसु = पारसु। जनु = जानो, मानो (as if)। दिखीजै = (उनको) दिखाई दे गया है।5। साकत सूतु = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य की जीवन डोर। गुरझी = उलझी हुई, गुंझलों से। किउकरि = कैसे? तानु = जीवन का ताना। तनीजै = ताना जा सकता है। तंतु = तंद। सूतु = धागा, डोर। निकसै = निकलता। संगु = साथ।6। सतिगुर साध-संगति = गुरू की साध-संगति। नीकी = अच्छी। मिलि = मिल के। रवीजै = सिमरा जा सकता है। अंतरि = (मनुष्य के) अंदर। माणक = मोती। ते = से। लीजै = लिया जा सकता है।7। ठाकुरु = मालिक प्रभू। मिलह = हम मिल सकते हैं। मिलीजै = मिल सकता है। मेलि = (अपने शबद में) मिला के। कउ = को। पूरनु = पूर्णता का दर्जा। दीजै = दे।8। अर्थ: हे भाई! जिन मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का नाम टिका रहता है, वे हैं साध-जन वे हैं भले मनुष्य। (परमात्मा के नाम की) छोह से (वे मनुष्य) साधू-जन बने हैं, (उनको) मानो, (हर जगह) हरी-भगवान दिखाई दे गया है।5। हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य की जीवन-डोर (विकारों की) अनेकों गुंझलों से उलझी रहती है। (विकारों की गुंझलों से भरे हुए जीवन-सूत्र से पवित्र जीवन का) ताना-बाना नहीं ताना जा सकता, (क्योंकि उन गुँझलों में से एक भी सीधी) तंद नहीं निकलती, एक भी धागा नहीं निकलता। (इस वास्ते, हे भाई!) परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य का साथ नहीं करना चाहिए।6। हे भाई! गुरू की साध-संगति भली (सुहबत) है, साध-संगति में मिल के परमात्मा का नाम जपा जा सकता है। (मनुष्य के) अंदर (गुप्त टिका हुआ हरी-नाम, जैसे) रत्न-जवाहरात-मोती हैं (यह हरी-नाम साध-संगति में टिक के) गुरू की कृपा से लिया जा सकता है।7। हे भाई! मेरा मालिक-प्रभू बहुत बड़ा है, हम जीव (अपने ही उद्यम से उसको) कैसे मिल सकते हैं? (इस तरह वह) नहीं मिल सकता। हे नानक! पूरा गुरू (ही अपने शबद में) जोड़ के (परमात्मा से) मिलाता है। (सो, गुरू परमेश्वर के दर पर अरदास करते रहना चाहिए कि हे प्रभू! अपने) सेवक को पूर्णता का दर्जा बख्श।8।2। कलिआनु महला ४ ॥ रामा रम रामो रामु रवीजै ॥ साधू साध साध जन नीके मिलि साधू हरि रंगु कीजै ॥१॥ रहाउ ॥ जीअ जंत सभु जगु है जेता मनु डोलत डोल करीजै ॥ क्रिपा क्रिपा करि साधु मिलावहु जगु थमन कउ थमु दीजै ॥१॥ बसुधा तलै तलै सभ ऊपरि मिलि साधू चरन रुलीजै ॥ अति ऊतम अति ऊतम होवहु सभ सिसटि चरन तल दीजै ॥२॥ गुरमुखि जोति भली सिव नीकी आनि पानी सकति भरीजै ॥ मैनदंत निकसे गुर बचनी सारु चबि चबि हरि रसु पीजै ॥३॥ राम नाम अनुग्रहु बहु कीआ गुर साधू पुरख मिलीजै ॥ गुन राम नाम बिसथीरन कीए हरि सगल भवन जसु दीजै ॥४॥ {पन्ना 1324} पद्अर्थ: रम = सर्व व्यापक। रामो रामु = राम ही राम। रवीजै = सिमरना चाहिए। नीके = नेक, अच्छे, सदाचारी जीवन वाले। मिलि = मिल के। हरि रंगु = हरी (के मिलाप) का आनंद।1। रहाउ। सभु जगु = सारा जगत। जेता = जितना भी है। डोलत डोल करीजै = हर वक्त डोल रहा है। करि = कर के। साधु = गुरू। थंमन कउ = सहारा देने के लिए। दीजै = दे।2। बसुधा = धरती। तलै तलै = हर वक्त पैरों तले। रुलीजै = रुलना चाहिए, पड़े रहना चाहिए। ऊतम = ऊँचे जीवन वाले। सभ सिसटि = सारी सृष्टि। दीजै = दी जा सकती है।2। सिव जोति = परमात्मा की ज्योति। नीकी = अच्छी। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने से। आनि पानी = पानी ला के। सकति = माया। मैन दंत = मोम के दाँत, हृदय की कोमलता। सारु = लोहा। सारु चबि चबि = बली विकारों को वश में कर के। पीजै = पीया जा सकता है।3। अनुग्रहु = कृपा, दान। मिलीजै = मिलना चाहिए। बिसथीरन कीऐ = बिखरा दिए। सगल भवन = सारे भवनों में, सारे जगत में। जसु = यश, सिफतसालाह। दीजै = बाँटा जाता है।4। अर्थ: हे भाई! सर्व-व्यापक राम (का नाम) सदा सिमरना चाहिए। (सिमरन की बरकति से मनुष्य) ऊँचे जीवन वाले गुरमुख साध बन जाते हैं। हे भाई! साधू-जनों को मिल के परमात्मा के मिलाप का आनंद लेना चाहिए।1। रहाउ। हे हरी! यह जितना भी सारा जगत है (इसके सारे) जीवों का मन (माया के असर तले) हर वक्त डावाँ-डोल होता रहता है। हे प्रभू! मेहर कर, मेहर कर, (जीवों को) गुरू से मिला (गुरू, जगत के लिए स्तंभ है), जगत को सहारा देने के लिए (यह) स्तंभ दे।1। हे भाई! धरती सदा (जीवों के) पैरों के तले ही रहती है, (आखिर में) सबके ऊपर आ जाती है। हे भाई! गुरू को मिल के (सबके) पैरों तले टिके रहना चाहिए। (अगर इस जीवन राह पर चलोगे तो) बड़े ही ऊँचे जीवन वाले बन जाओगे (विनम्रता की बरकति से) सारी धरती (अपने) पैरों तले दी जा सकती है।2। हे भाई! गुरू की शरण पड़ने से परमात्मा की भली सुंदर ज्योति (मनुष्य के अंदर जाग उठती है, तब) माया (भी उसके लिए) पानी भरती है (माया उसकी दासी बनती है)। गुरू के वचनों से उसके दिल में (ऐसी) कोमलता पैदा होती है कि बलवान विकारों को वश में करके परमात्मा का नाम-रस पीया जा सकता है।3। हे भाई! साध गुरू पुरख को मिलना चाहिए, गुरू परमात्मा का नाम-दान देने की मेहर करता है। गुरू परमात्मा का नाम परमात्मा के गुण (सारे जगत में) बिखेरता है, (गुरू के द्वारा) परमात्मा की सिफतसालाह सारे भवनों में बाँटी जाती हैं।4। साधू साध साध मनि प्रीतम बिनु देखे रहि न सकीजै ॥ जिउ जल मीन जलं जल प्रीति है खिनु जल बिनु फूटि मरीजै ॥५॥ महा अभाग अभाग है जिन के तिन साधू धूरि न पीजै ॥ तिना तिसना जलत जलत नही बूझहि डंडु धरम राइ का दीजै ॥६॥ सभि तीरथ बरत जग्य पुंन कीए हिवै गालि गालि तनु छीजै ॥ अतुला तोलु राम नामु है गुरमति को पुजै न तोल तुलीजै ॥७॥ तव गुन ब्रहम ब्रहम तू जानहि जन नानक सरनि परीजै ॥ तू जल निधि मीन हम तेरे करि किरपा संगि रखीजै ॥८॥३॥ {पन्ना 1324-1325} पद्अर्थ: साध मनि = संत जनों के मन में। रहि न सकीजै = रहा नहीं जा सकता। जल मीन = पानी की मछली। जलं जल प्रीति = हर वक्त पानी का प्यार। फूटि = फूट के।5। अभाग = दुर्भाग्य। साधू धूरि = संत जनों के चरणों की धूल। नही बूझहि = बुझते नहीं, शांत नहीं होते। डंडु = सज़ा। दीजै = दी जाती है।6। सभि = सारे। हिवै = बर्फ में। गालि = गला के। तनु छीजै = (अगर) शरीर नाश हो जाए। अतुला = ना तोला जा सकने वाला। को = कोई (भी उद्यम)। पुजै न = पहूँचता नहीं, बराबरी नहीं कर सकता। तुलीजै = अगर तोला जाए।7 अर्थ: हे भाई! संत जनों के मन में (सदा) प्रीतम प्रभू जी बसते हैं, (प्रभू के) दर्शन किए बिना (उनसे) रहा नहीं जा सकता; जैसे पानी में मछली का हर वक्त पानी से ही प्यार है, पानी के बिना एक छिन में ही वह तड़प-तड़प के मर जाती है।5। हे भाई! जिन लोगों के भाग्य बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होते हैं, उनको संत-जनों के चरणों की चरण-धूल नसीब नहीं होती। उनके अंदर तृष्णा की आग लगी रहती है, (उस आग में) हर वक्त जलते हुए के अंदर ठंढ नहीं पड़ती, (यह उनको) धर्मराज की सजा मिलती है।6। हे भाई! अगर सारे तीर्थों के स्नान, अनेकों व्रत, यज्ञ और (इस तरह के) पुन्य-दान किए जाएं, (पहाड़ों की खुंदरों में) बर्फ में गला-गला के शरीर नाश किया जाए, (तो भी इन सारे साधनों में से) कोई भी साधन परमात्मा के नाम की बराबरी नहीं कर सकता। परमात्मा का नाम ऐसा है कि कोई भी तोल उसको तोल नहीं सकता, वह मिलता है गुरू की मति पर चलने से।7। हे दास नानक! (कह-) हे प्रभू! तेरे गुण तू (स्वयं ही) जानता है (मेहर कर, हम जीव तेरी ही) शरण पड़े रहें। तू (हमारा) समुंद्र है, हमज ीव तेरी मछलियाँ हैं, मेहर करके (हमें अपने) साथ ही रखे रख।8।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |