श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कलिआन महला ४ ॥ रामा रम रामो पूज करीजै ॥ मनु तनु अरपि धरउ सभु आगै रसु गुरमति गिआनु द्रिड़ीजै ॥१॥ रहाउ ॥ ब्रहम नाम गुण साख तरोवर नित चुनि चुनि पूज करीजै ॥ आतम देउ देउ है आतमु रसि लागै पूज करीजै ॥१॥ बिबेक बुधि सभ जग महि निरमल बिचरि बिचरि रसु पीजै ॥ गुर परसादि पदारथु पाइआ सतिगुर कउ इहु मनु दीजै ॥२॥ निरमोलकु अति हीरो नीको हीरै हीरु बिधीजै ॥ मनु मोती सालु है गुर सबदी जितु हीरा परखि लईजै ॥३॥ संगति संत संगि लगि ऊचे जिउ पीप पलास खाइ लीजै ॥ सभ नर महि प्रानी ऊतमु होवै राम नामै बासु बसीजै ॥४॥ {पन्ना 1325}

पद्अर्थ: रम = सर्व व्यापक। पूज = भगती। करीजै = करनी चाहिए। अरपि = भेटा कर के। धरउ = धरूँ, मैं धरता हूँ। सभु = सब कुछ। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। द्रिड़ीजै = हृदय में पक्का हो सके।1। रहाउ।

ब्रहम नाम = परमात्मा का नाम। ब्रहम गुण = परमात्मा की सिफत सालाह। साख तरोवर = वृक्ष की शाखाएं। चुनि चुनि = (यही) फूल चुन चुन के। पूज करीजै = पूजा करनी चाहिए। आतम देउ = परमात्मा ही देवता है। रसि लागै = रसि लागि, (परमात्मा के ही नाम-) रस में लग के।1।

बिबेक बुधि = अच्छे बुरे कर्म की परख कर सकने वाली अक्ल। बिचरि बिचरि = (इस बुद्धि से) विचार विचार के। पीजै = पीना चाहिए। परसादि = कृपा से। पदारथु = हरी नाम। कउ = को। दीजै = देना चाहिए।2।

अति नीको = बहुत सुंदर। हीरो = हरी नाम हीरा। हीरै = (इस) हीरे से। हीरु = मन हीरा। बिधीजै = भेद लेना चाहिए, परो लेना चाहिए। सालु = सारु, श्रेष्ठ। सबदी = शबद से। जितु = जिस (शबद) की बरकति से। हीरा = नाम हीरा।3।

संगि = साथ। लगि = लग के। पीप = पीपल। पलास = छिछर। राम नामै = परमात्मा के नाम में। बासु = सुगंधि।4।

अर्थ: हे भाई! सदा सर्व-व्यापक परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए। अगर कोई मेरे हृदय में गुरमति के द्वारा परमात्मा के नाम का आनंद और आत्मिक जीवन की सूझ पक्की कर दे तो मैं अपना मन अपना तन सब कुछ उसके आगे भेटा रख दूँ।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा ही (पूजनीय) देवता है, (परमात्मा के नाम-) रस में लग के परमात्मा की ही भगती करनी चाहिए। परमात्मा का नाम परमात्मा के गुण ही वृक्ष की शाखाएं हैं (जिनसे नाम और सिफत-सालाह के फूल ही) चुन-चुन के परमात्मा-देव की पूजा करनी चाहिए।1।

हे भाई! (अन्य सभी चतुराईयों से) जगत में अच्छे-बुरे कर्म की परख कर सकने वाली बुद्धि (बिबेक) ही सबसे पवित्र है। (इसकी सहायता से परमात्मा के गुण मन में) बसा-बसा के (आत्मिक-जीवन देने वाला नाम-) रस पीना चाहिए। ये नाम-पदार्थ गुरू की कृपा से (ही) मिलता है, अपना ये मन गुरू के हवाले कर देना चाहिए।2।

हे भाई! परमात्मा का नाम हीरा बहुत कीमती है बहुत ही सुंदर है, इस नाम-हीरे से (अपने मन-) हीरे को सदा परो के रखना चाहिए। गुरू के शबद से ये मन श्रेष्ठ मोती बन सकता है, क्योंकि शबद की बरकति से नाम-हीरे की कदर-कीमत की समझ पड़ जाती है।3।

हे भाई! संत-जनों की संगति में रह के संत-जनों के चरणों में लग के ऊँचे जीवन वाले बना जा सकता है। जैसे छिछरे को पीपल अपने में लीन कर (के अपने जैसा ही बना) लेता है, (इसी तरह मनुष्य में) परमात्मा के नाम की सुगंधि बस जाती है, वह मनुष्य सब प्राणियों में से ऊँचे जीवन वाला बन जाता है।4।

निरमल निरमल करम बहु कीने नित साखा हरी जड़ीजै ॥ धरमु फुलु फलु गुरि गिआनु द्रिड़ाइआ बहकार बासु जगि दीजै ॥५॥ एक जोति एको मनि वसिआ सभ ब्रहम द्रिसटि इकु कीजै ॥ आतम रामु सभ एकै है पसरे सभ चरन तले सिरु दीजै ॥६॥ नाम बिना नकटे नर देखहु तिन घसि घसि नाक वढीजै ॥ साकत नर अहंकारी कहीअहि बिनु नावै ध्रिगु जीवीजै ॥७॥ जब लगु सासु सासु मन अंतरि ततु बेगल सरनि परीजै ॥ नानक क्रिपा क्रिपा करि धारहु मै साधू चरन पखीजै ॥८॥४॥ {पन्ना 1325}

पद्अर्थ: निरमल = विकारों की मैल से बचाने वाले, पवित्र। साखा = शाखा। साखा हरी = हरी शाख। जड़ीजै = जड़ी जाती है, उगती है। गुरि = गुरू ने। द्रिढ़ाइआ = दिल में पक्का कर दिया। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। बहकार = महकार, सुगंधि। बासु = सुगंधि। जगि = जगत में। दीजै = दी जाती है।5।

ऐको = एक (परमात्मा) ही। मनि = मन में। ब्रहम = परमात्मा। द्रिसटि = निगाह, नजर। आतम रामु = परमात्मा। पसरे = व्यापक। तले = नीचे।6।

नकटे = नाक कटे, आदर हीन। तिन नाक = उनका नाक। घसि घसि = बार बार घिस के। वढीजै = काटा जाता है। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। कहीअहि = कहे जाते हैं। ध्रिगु = धिक्कार योग्य।7।

सासु = साँस। सासु सासु = हरेक सांस। जब लगु = जब तक। ततु = तुरंत। बेगल = बे+गल, झिझक के बिना, श्रद्धा से। परीजै = पड़े रहना चाहिए। पखीजै = धोता रहूँ (पखालता रहूँ)।8।

अर्थ: हे भाई! (गुरमति की बरकति से जिस मनुष्य ने) विकारों की मैल से बचाने वाले काम नित्य करने शुरू कर दिए, (उसके जीवन-वृक्ष पर, मानो, यह) हरी शाखा सदा उगती रहती है, (जिसको) धर्म-रूप फूल लगता रहता है, और गुरू से मिली आत्मिक जीवन की सूझ (का) फल लगता है। (इस फूल की) महक सुगन्धि (सारे) जगत में बिखरती है।5।

हे भाई! (सारे जगत में) एक (परमात्मा) की ज्योति (ही बसती है), एक परमात्मा ही (सबके) मन में बसता है, सारी लुकाई में सिर्फ परमात्मा को देखने वाली निगाह ही बनानी चाहिए। सारी सृष्टि में एक परमात्मा ही पसारा पसार रहा है, (इसलिए) सबके चरणों तले (अपना) सिर रखना चाहिए।6।

हे भाई! देखो, जो मनुष्य परमात्मा के नाम से वंचित रहते हैं वे निरादरी ही करवाते हैं, उनकी नाक सदा कटती ही रहती है। परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य अहंकारी ही कहे जाते हैं। नाम के बिना जीया हुआ जीवन धिक्कारयोग्य ही होता है।7।

हे भाई! जब तक मन में (भाव, शरीर में) एक साँस भी आ रहा है, तब तक पूरी श्रद्धा से परमात्मा के चरणों में पड़े रहना चाहिए। हे नानक! (कह- हे प्रभू! मेरे पर) मेहर कर, मेहर कर, मैं तेरे संत-जनों के चरण धोता रहूँ।8।4।

कलिआन महला ४ ॥ रामा मै साधू चरन धुवीजै ॥ किलबिख दहन होहि खिन अंतरि मेरे ठाकुर किरपा कीजै ॥१॥ रहाउ ॥ मंगत जन दीन खरे दरि ठाढे अति तरसन कउ दानु दीजै ॥ त्राहि त्राहि सरनि प्रभ आए मो कउ गुरमति नामु द्रिड़ीजै ॥१॥ काम करोधु नगर महि सबला नित उठि उठि जूझु करीजै ॥ अंगीकारु करहु रखि लेवहु गुर पूरा काढि कढीजै ॥२॥ अंतरि अगनि सबल अति बिखिआ हिव सीतलु सबदु गुर दीजै ॥ तनि मनि सांति होइ अधिकाई रोगु काटै सूखि सवीजै ॥३॥ जिउ सूरजु किरणि रविआ सरब ठाई सभ घटि घटि रामु रवीजै ॥ साधू साध मिले रसु पावै ततु निज घरि बैठिआ पीजै ॥४॥ {पन्ना 1325-1326}

पद्अर्थ: रामा = हे राम! साधू = गुरू। धुवीजै = धोना, धोता रहूँ। किलबिख = पाप। दहन होहि = जल जाते हैं। ठाकुर = हे ठाकुर! ।1। रहाउ।

दीन = निमाणे। खरे = खड़े हैं। दरि = (तेरे) दर पर। ठाढे = खड़े हुए। अति तरसन कउ = बहुत तरस रहा हूँ। दीजै = दे। त्राहि = बचा ले। प्रभ = हे प्रभू! मो कउ = मुझे। द्रिड़ीजै = हृदय में पक्का कर।1।

नगर महि = शरीर नगर में। सबला = बलवान। उठि = उठ के। जूझु = युद्ध। करीजै = करना, मैं करता हॅू। अंगीकारु = पक्ष, मदद, सहायता। राखि लेवहु = बचा ले। काढि कढीजै = सदा के लिए निकाल दे।2।

सबल अति = बहुत बल वाली। बिखिआ अगनि = माया (की तृष्णा) की आग। हिव = बर्फ। सबदु गुर = गुरू का शबद। तनि = तन में। मनि = मन में। अधिकाई = बहुत। सूखि = सुख में। सवीजै = सेवा की जा सके, लीनता हो जाए।3।

रविआ = व्यापक है। सरब ठाई = सब जगह। घटि घटि = हरेक शरीर में। रवीजै = व्यापक है। रसु = आनंद, स्वाद। पावै = पाता है, माणता है। ततु = निचोड़। निज = अपना। घरि = घर में। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभू चरणों में।4।

अर्थ: हे मेरे ठाकुर! हे मेरे राम! (मेरे ऊपर मेहर कर) मैं गुरू के चरण (नित्य) धोता रहूँ (गुरू की शरण पड़े रहने पर) एक छिन में सारे पाप जल जाते हैं।1। रहाउ।

हे प्रभू! (तेरे दर के) निमाणे मँगते (तेरे) दर पर खड़े हुए हैं, बहुत तरस रहों को (यह) ख़ैर डाल। हे प्रभू! (इन पापों से) बचा ले, बचा ले, (हम तेरी) शरण आए हैं। हे प्रभू! गुरू की मति से (अपना) नाम मेरे अंदर पक्का कर।1।

हे प्रभू! (हम जीवों के शरीर-) नगर में काम-क्रोध (आदि हरेक विकार) बलवान हुआ रहता है, हमेशा उठ-उठ के (इनके साथ) युद्ध करना पड़ता है। हे प्रभू! सहायता कर, (इनसे) बचा ले। पूरा गुरू (मिला के इनके पँजे में से) निकाल ले।2।

हे भाई! (जीवों के) अंदर माया (की तृष्णा) की आग बहुत भड़क रही है। बर्फ जैसे गुरू के शीतलता भरे शबद दे, (ताकि) तन में मन में बहुत शांति पैदा हो जाए। (गुरू का शबद जीवों के हरेक) रोग काट देता है, (गुरू के शबद की बरकति से) आत्मिक आनंद में मगन रह सकते हैं।3।

हे भाई! जैसे सूरज (अपनी) किरण के द्वारा सब जगह पहुँचा हुआ है, (वैसे ही) परमात्मा सारी लुकाई में हरेक शरीर में व्यापक है। जिस मनुष्य को संत जन मिल जाते हैं, वह (मिलाप के) स्वाद को भोगता है। हे भाई! (संत जनों की संगति से) प्रभू-चरणों में लीन हो के नाम-रस पीया जा सकता है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh