श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ੴ सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

रागु परभाती बिभास महला १ चउपदे घरु १ ॥

नाइ तेरै तरणा नाइ पति पूज ॥ नाउ तेरा गहणा मति मकसूदु ॥ नाइ तेरै नाउ मंने सभ कोइ ॥ विणु नावै पति कबहु न होइ ॥१॥ अवर सिआणप सगली पाजु ॥ जै बखसे तै पूरा काजु ॥१॥ रहाउ ॥ नाउ तेरा ताणु नाउ दीबाणु ॥ नाउ तेरा लसकरु नाउ सुलतानु ॥ नाइ तेरै माणु महत परवाणु ॥ तेरी नदरी करमि पवै नीसाणु ॥२॥ नाइ तेरै सहजु नाइ सालाह ॥ नाउ तेरा अम्रितु बिखु उठि जाइ ॥ नाइ तेरै सभि सुख वसहि मनि आइ ॥ बिनु नावै बाधी जम पुरि जाइ ॥३॥ नारी बेरी घर दर देस ॥ मन कीआ खुसीआ कीचहि वेस ॥ जां सदे तां ढिल न पाइ ॥ नानक कूड़ु कूड़ो होइ जाइ ॥४॥१॥ {पन्ना 1327}

नोट: यह शबद प्रभाती और बिभास दोनों मिश्रित रागों में गाने की हिदायत है।

पद्अर्थ: नाइ = नाय, नाम से। तेरै नाइ = तेरे नाम में जुड़ के। पति = इज्जत। पूज = पूजा, आदर। मकसूदु = मकसद, मनोरथ, निशाना। मति मकसूद = समझ का मनोरथ। नाउ मंनै = नाम मानता है, वडिआई देता है। सभ कोइ = हरेक जीव।1।

अवर सिआणप = (नाम सिमरन छोड़ के वडिआई हासिल करने के लिए) और और चतुराईयों (वाला काम)। पाजु = लोक दिखावा। जै = जिस को। तै काजु = उसका कारजु, उसका जगत में आने का मनोरथ। पूरा = संपूर्ण (करता है), सिरे चढ़ाता है।1। रहाउ।

ताणु = बल, ताकत। दीबाणु = आसरा, हकूमत। महत = महत्वता, वडिआई। परवाणु = कबूल, जाना माना। नदरी = मेहर की नजर से। करमि = बख्शिश से। पवै = मिलता है। नीसाणु = परवाना, राहदारी।2।

सहजु = अडोल अवस्था, मन की शांति। सालाह = सिफतसालाह (की आदत)। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला पवित्र जल। बिखु = (विषौ-विकारों का) जहर। मनि = मन में। जम पुरि = जमराज के शहर में।3।

नारी = स्त्री (का मोह)। बेरी = बेड़ी, बँधन। देस = मिलख, जमीन। कीचहि = करते हैं। वेस = पहरावे। जां = जब। कूड़ ु = वह पदार्थ जिसके साथ हमेशा संबंध नहीं रहना।4।

अर्थ: हे प्रभू! तेरे नाम में जुड़ के ही (संसार-समुंद्र के विकारों से) पार लांघा जाता है, तेरे नाम के द्वारा ही इज्जत-आदर मिलता है। तेरा नाम (इन्सानी जीवन को श्रृंगारने के लिए) गहना है, मानवीय-बुद्धि का मकसद यही है (कि मनुष्य तेरा नाम सिमरे)। हे प्रभू! तेरे नाम में टिक के ही हर कोई (नाम सिमरन वाले की) इज्जत करता है।1।

(प्रभू का सिमरन छोड़ के दुनिया में आदर हासिल करने के लिए) और-और चतुराईयों (के काम निरे) लोक-दिखावा हैं (वह पाज उघड़ जाता है और हासिल की हुई इज्जत भी खत्म हो जाती है)। जिस जीव पर प्रभू बख्शिश करता है (उसको अपने नाम की दाति देता है, और उस जीव का) जिंदगी का असल उद्देश्य सफल होता है।1। रहाउ।

(मनुष्य दुनियावी ताकत, हकूमत, फौजों की सरदारी और बादशाहियत के लिए दौड़ता-फिरता है, फिर ये सब कुछ नाशवंत है) हे प्रभू! तेरा नाम ही (असल) ताकत है, तेरा नाम ही (असल) हकूमत है, तेरा नाम ही फौजों (की सरदारी) है, जिसके पल्ले तेरा नाम है वही बादशाह है। हे प्रभू! तेरे नाम में जुड़ने से ही असल आदर मिलता है इज्जत मिलती है। जो मनुष्य तेरे नाम में मस्त है वही जगत में जाना-माना हुआ है। पर, तेरी मेहर की नज़र से ही तेरी बख्शिश से ही (जीव-यात्री को इस जीवन-यात्रा में) यह परवाना (राहदारी) मिलता है।2।

हे प्रभू! तेरे नाम में जुड़ने से ही मन की शांति मिलती है, तेरे नाम में जुड़ने से तेरी सिफत-सालाह करने की आदत बनती है। तेरा नाम ही आत्मिक जीवन देने वाला ऐसा पवित्र जल है (जिसकी बरकति से मनुष्य मन में से विषौ-विकारों का सारा) जहर धुल जाता है। तेरे नाम में जुड़ने से सारे सुख मन में आ बसते हैं। नाम से टूट के दुनिया (विकारों की जंजीरों में) बँधी हुई जम की नगरी में जाती है।3।

हे नानक! स्त्री (का प्यार) घरों को जमीन-जायदादों की मल्कियत - ये सब कुछ (जीव-यात्री के पैरों में) बेड़ियाँ (पड़ी हुई) हैं (जो इसको सही जीवन-यात्रा में चलने नहीं देतीं)। मन की प्रसन्नता के लिए अनेकों पहरावे पहनते है। (ये खुशियाँ व चाव भी बेड़ियाँ ही हैं)। जब (परमात्मा जीव को) मौत का बुलावा भेजता है (उसके बुलावे पर) रक्ती भर भी ढील नहीं हो सकती। (तब समझ आती है कि) झूठे पदार्थों का साथ झूठा ही निकलता है।4।1।

प्रभाती महला १ ॥ तेरा नामु रतनु करमु चानणु सुरति तिथै लोइ ॥ अंधेरु अंधी वापरै सगल लीजै खोइ ॥१॥ इहु संसारु सगल बिकारु ॥ तेरा नामु दारू अवरु नासति करणहारु अपारु ॥१॥ रहाउ ॥ पाताल पुरीआ एक भार होवहि लाख करोड़ि ॥ तेरे लाल कीमति ता पवै जां सिरै होवहि होरि ॥२॥ दूखा ते सुख ऊपजहि सूखी होवहि दूख ॥ जितु मुखि तू सालाहीअहि तितु मुखि कैसी भूख ॥३॥ नानक मूरखु एकु तू अवरु भला सैसारु ॥ जितु तनि नामु न ऊपजै से तन होहि खुआर ॥४॥२॥ {पन्ना 1327-1328}

पद्अर्थ: करमु = बख्शिश। तिथै = उस (सुरति) में। लोइ = (ज्ञान का) प्रकाश। अंधेरु = अंधेरा, अज्ञानता का अंधेरा। अंधी = (माया के मोह में) अंधी हुई सृष्टि पर। वापरै = जोर डाल रहा है। खोइ लीजै = गवा लेता है।1।

बिकारु = बुरे कर्म, एैब। नासति = (ना+अस्ति) नहीं है। करणहारु = बनाने वाला।1। रहाउ।

ऐक भार होवहि = अगर (इकट्ठे बँध के) एक गाँठ बन जाएं। लाल = लाल जैसे कीमती नाम की। ता = तब ही। जां = जब। सिरै = (तराजू के दूसरे) छाबे में। होरि = (पाताल पुरियों आदि के सारे पदार्थों को छोड़ के) कोई और पदार्थ।2।

ते = से। जितु मुखि = जिस मुँह से। तितु मुखि = उस मुँह में। भूख = माया की भूख, तृष्णा।3।

ऐक तू = सिफ तू ही। अवरु सैसारु = बाकी सारा संसार। जितु तनि = जिस जिस शरीर में। से तन = वह सारे शरीर।4।

अर्थ: (हे प्रभू! तेरे नाम से टूट के) ये सारा जगत विकार ही विकार (सहेड़ रहा) है। (इस विकार रोग की) दवाई (सिर्फ) तेरा नाम ही है, (तेरे नाम के बिना) कोई और दवा-दारू नहीं है। (जगत को और जगत के रोगों की दवाई को) बनाने वाला तू बेअंत प्रभू स्वयं ही है।1। रहाउ।

(हे प्रभू!) जिस (मानस) सुरति में तेरा नाम-रत्न (जड़ा हुआ) है, तेरी बख्शिश रौशनी कर रही है उस सुरति के अंदर (तेरे ज्ञान का) प्रकाश हो रहा है। (माया के मोह में) अंधी हो रही सृष्टि पर अज्ञानता का अंधेरा प्रभाव डाल रहा है, (इस अंधेरे में) सारी आत्मिक राशि-पूँजी गवा ली जाती है।1।

अगर सृष्टि की सारी पाताल और पुरियाँ (आपस में बँध के) एक गठड़ी बन जाएं, और अगर इस तरह की और लाखों-करोड़ों गठड़ियां भी हो जाएं (तो ये सारे मिल के भी परमात्मा के नाम की बराबरी नहीं कर सकते)। हे प्रभू! तेरे कीमती नाम का मूल्य तब ही पड़ सकता है जब नाम को तोलने के लिए तकड़ी के दूसरे छाबे में (सारी दुनिया के धन-पदार्थों को छोड़ के) कोई और पदार्थ हों (भाव, तेरी सिफतों के खजाने हों! तेरे नाम जैसा कीमती नाम ही है, तेरी सिफतें-सालाहें ही हैं)।2।

(दुनियां वाले दुख-कलेश भी प्रभू की बख्शिश का वसीला हैं क्योंकि इन) दुखों से (इन दुखों के कारण विषौ-विकारों से पलटने पर वापस लौटने पर) आत्मिक सुख पैदा हो जाते हैं, (और दुनियावी भोगों के) सुखों से (आत्मिक और शारीरिक) रोग उपजते हैं। हे प्रभू! जिस मुँह से तेरी सिफत-सालाह की जाती है, उस मुँह में माया की भूख नहीं रह जाती (और माया की भूख दूर होने पर सारे दुख-रोग नाश हो जाते हैं)।3।

हे नानक! (अगर तेरे अंदर परमात्मा का नाम नहीं है तो) सिर्फ तू ही मूर्ख है, तेरे से कहीं ज्यादा संसार अच्छा है। जिस जिस शरीर में प्रभू का नाम नहीं, वह शरीर (विकारों में पड़ कर) दुखी होते हैं।4।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh