श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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प्रभाती महला १ ॥ जै कारणि बेद ब्रहमै उचरे संकरि छोडी माइआ ॥ जै कारणि सिध भए उदासी देवी मरमु न पाइआ ॥१॥ बाबा मनि साचा मुखि साचा कहीऐ तरीऐ साचा होई ॥ दुसमनु दूखु न आवै नेड़ै हरि मति पावै कोई ॥१॥ रहाउ ॥ अगनि बि्मब पवणै की बाणी तीनि नाम के दासा ॥ ते तसकर जो नामु न लेवहि वासहि कोट पंचासा ॥२॥ जे को एक करै चंगिआई मनि चिति बहुतु बफावै ॥ एते गुण एतीआ चंगिआईआ देइ न पछोतावै ॥३॥ तुधु सालाहनि तिन धनु पलै नानक का धनु सोई ॥ जे को जीउ कहै ओना कउ जम की तलब न होई ॥४॥३॥ {पन्ना 1328}

पद्अर्थ: जै = जिस। जै कारणि = जिस (परमात्मा के मिलाप) की खातिर। ब्रहमै = ब्रहमा ने। संकरि = शंकर ने, शिव ने। सिध = साधनों में माहिर जोगी। देवी = देवीं देवताओं ने। मरमु = भेद।1।

बाबा = हे भाई! मनि = मन में। साचा = सदा कायम रहने वाला प्रभू। मुखि = मुँह में। तरीअै = तैरा जाता है। होई = हुआ जाता है। न आवै नेड़ै = नजदीक नहीं आता, जोर नहीं डाल सकता। हरि मति = हरी सिमरन करने की अक्ल। कोई = जो कोई।1। रहाउ।

अगनि = आग, तमो गुण। बिंब = पानी, सतोगुण। पवण = हवा, रजो गुण। बाणी = बनावट, बनतर। तीनि = ये तीनों माया के गुण। तसकर = चोर। वासहि = बसते हैं। कोट = किले। पंचासा = (पंच+अस्य: पंचास्यं सपवद) शेर। कोट पंचासा = शेरों के किलों में, कामादिक शेरों के घुरनों में।2।

ऐक चंगिआई = एक भलाई, एक भला काम। मनि = मन में। चिति = चिक्त में। बफावै = डींगे मारता है। देइ = (दातें) देता है।3।

सलाहनि = (जो जीव) सालाहते हैं, सिफत सालाह करते हैं। तिन पलै = उनके पल्ले, उनके हृदय में। सोई = वही है। को = कोई व्यक्ति। जीउ कहै = आदर सत्कार के वचन बोलता है। तलब = पूछताछ।4।

अर्थ: हे भाई! अपने मन में सदा कायम रहने वाले परमात्मा को बसाना चाहिए, मुँह से सदा-स्थिर प्रभू की सिफतें करनी चाहिए, (इस तरह संसार-समुंद्र की विकार-लहरों से) पार लांघा जाता है, उस सदा-स्थिर प्रभू का रूप हो जाया जाता है। जो कोई मनुष्य परमात्मा का सिमरन करने की बुद्धि सीख लेता है, कोई वैरी उस पर जोर नहीं डाल सकता, कोई दुख-कलेश उसको दबा नहीं सकता।1।

जिस परमात्मा के मिलाप की खातिर ब्रहमा ने वेद उचारे, और शिव जी ने दुनिया की माया त्यागी, जिस प्रभू को प्राप्त करने के लिए जोग-साधना में माहिर जोगी (दुनिया से) विरक्त हो गए (वह बड़ा बेअंत है), देवताओं ने (भी) उस (के गुणों) का भेद नहीं पाया।1।

यह सारा जगत तमो गुण, सतो गुण और रजो गुण की रचना है (सारे जीव-जंतु इन गुणों के अधीन हैं), पर यह तीनों गुण प्रभू के नाम के दास हैं (जो लोग नाम जपते हैं, उन पर ये तीन गुण अपना जोर नहीं डाल सकते)। (पर हाँ,) जो जीव प्रभू का नाम नहीं सिमरते वे (इन तीन गुणों के) चोर हैं (इनसे मार खाते हैं, क्योंकि) वह सदा (कामादिक) शेरों के घुरनों में बसते हैं।2।

(हे भाई! देखो, उस परमात्मा की दरिया-दिली) अगर कोई व्यक्ति (किसी के साथ) कोई एक भलाई करता है; तो वह अपने मन में चिक्त में बड़ी डींगे मारता है (बड़ा गुमान करता है, पर) परमात्मा में इतने बेअंत गुण हैं, वह इतने भले कार्य करता है, वह (सब जीवों को दातें) देता है, पर दातें दे दे के कभी अफसोस नहीं करता (कि जीव दातें लेकर कद्र नहीं करते)।3।

हे प्रभू! जो लोग तेरी सिफत-सालाह करते हैं, उनके हृदय में तेरा नाम-धन है (वह असली धन है), मुझ नानक का धन भी तेरा नाम ही है। (जिनके पल्ले नाम-धन है) यदि कोई उनके साथ आदर-सत्कार के बोल बोलता है, तो जमराज (भी) उनसे कर्मों का लेखा नहीं पूछता (भाव, वे बुराई से हट जाते हैं)।4।3।

प्रभाती महला १ ॥ जा कै रूपु नाही जाति नाही नाही मुखु मासा ॥ सतिगुरि मिले निरंजनु पाइआ तेरै नामि है निवासा ॥१॥ अउधू सहजे ततु बीचारि ॥ जा ते फिरि न आवहु सैसारि ॥१॥ रहाउ ॥ जा कै करमु नाही धरमु नाही नाही सुचि माला ॥ सिव जोति कंनहु बुधि पाई सतिगुरू रखवाला ॥२॥ जा कै बरतु नाही नेमु नाही नाही बकबाई ॥ गति अवगति की चिंत नाही सतिगुरू फुरमाई ॥३॥ जा कै आस नाही निरास नाही चिति सुरति समझाई ॥ तंत कउ परम तंतु मिलिआ नानका बुधि पाई ॥४॥४॥ {पन्ना 1328}

पद्अर्थ: जा कै = जिन लोगों के पास। मासा = (शरीर पर) मास (भाव, शारीरिक बल)। सतिगुरि = सतिगुरू में, गुरू के चरणों में। मिले = जुड़े। निरंजनु = वह प्रभू जो माया की कालिख से रहित है। तेरै नामि = (हे प्रभू!) तेरे नाम में।1।

अउधू = (वह साधू जिसने माया के बँधन तोड़ के किनारे फेंक दिए, वह विरक्त साधू जो शरीर पर राख मले फिरते हैं), हे अउधू! सहजे = सहजि, अडोल अवस्था में टिक के। ततु = जगत का मूल प्रभू। ततु बीचारि = जगत का मूल प्रभू (के गुणों) की विचार, प्रभू के गुणों में सुरति जोड़। जा ते = जिस पर, जिस (उद्यम) से। संसारि = संसार में, जनम मरण के चक्कर में।1। रहाउ।

करमु = धार्मिक कर्म। धरम = वर्ण आश्रम वाला कोई कर्म। सुचि = चौके आदि वाली स्वच्छता सुचि। सिव जोति = कल्याण रूप परमात्मा की जोति। कंनहु = पास से। बुधि = (तत्व विचारने की) बुद्धि, प्रभू के गुणों में सुरति जोड़ने की सूझ।2।

नेमु = कर्म कांड अनुसार रोजाना करने वाला काम। बकबाई = बकवास, हवाई बातें, व्यर्थ वचन, चतुराई के बोल। गति = मुक्ति। अवगति = (मुक्ति के उलट) नर्क आदि। चिंत = सहम, फिक्र। फुरमाई = हुकम, उपदेश।3।

आस = दुनियां के धन-पदार्थों की आशाएं। निरास = दुनिया से उपराम हो जाने का ख्याल। जा कै चिति = जिसके चिक्त में। समझाई = समझ, सूझ। तंत = जीवात्मा। परम तंतु = परम आत्मा अकाल पुरख। बुधि = (प्रभू के गुणों की सुरति जोड़ने की) अकल।4।

अर्थ: हे जोगी! (तू घर-बार छोड़ के तन पर राख मल के ही यह समझे बैठा है कि तू जनम-मरण के चक्करों में से निकल गया है, तुझे भुलेखा है)। अडोल आत्मिक अवस्था में टिक के प्रभू की सिफत-सालाह में सुरति जोड़। (यही तरीका है) जिससे तू दोबारा जनम-मरण के चक्कर में नहीं आएगा।1। रहाउ।

(हे जोगी!) जिनके पास रूप नहीं, जिनकी ऊँची जाति नहीं, जिनके सुंदर नक्श नहीं, जिनके पास शारीरिक बल नहीं, जब वे गुरू-चरणों में जुड़े, तो उनको माया-रहित प्रभू मिल गया। (हे प्रभू! गुरू की शरण पड़ने से) उनका निवास तेरे नाम में हो गया।1।

(हे जोगी!) जो लोग शास्त्रों का बताया हुआ कोई कर्म-धर्म नहीं करते, जिन्होंने चौके आदि की कोई सुचि नहीं रखी, जिनके गले में (तुलसी आदि की) माला नहीं, जब उनका रखवाला गुरू बन गया, उनको कल्याण-रूप निरंकारी ज्योति से (उसकी सिफतसालाह में जुड़ने की) बुद्धि मिल गई।2।

(हे जोगी!) जिन लोगों ने कभी कोई व्रत नहीं रखा, कोई (इस तरह का और) नियम नहीं रखा, जो शास्त्र-चर्चा के कोई चतुराई भरे बोल नहीं बोलने जानते, जब गुरू का उपदेश उनको मिला, तो मुक्ति अथवा नर्क का उनको कोई फिक्र सहम नहीं रह गया।3।

हे नानक! जिस जीव के पास धन-पदार्थ नहीं कि वह दुनिया की आशाएं चिक्त में बनाए रखे, जिस जीव के चिक्त में माया से उपराम हो के गृहस्थ-त्याग के ख्याल भी नहीं उठते, जिसको ऐसी कोई सुरति नहीं समझ नहीं, जब उसको (सतिगुरू से प्रभू की सिफत-सालाह में जुड़ने की) अकल मिलती है, तो उस जीव को परमात्मा मिल जाता है।4।4।

प्रभाती महला १ ॥ ता का कहिआ दरि परवाणु ॥ बिखु अम्रितु दुइ सम करि जाणु ॥१॥ किआ कहीऐ सरबे रहिआ समाइ ॥ जो किछु वरतै सभ तेरी रजाइ ॥१॥ रहाउ ॥ प्रगटी जोति चूका अभिमानु ॥ सतिगुरि दीआ अम्रित नामु ॥२॥ कलि महि आइआ सो जनु जाणु ॥ साची दरगह पावै माणु ॥३॥ कहणा सुनणा अकथ घरि जाइ ॥ कथनी बदनी नानक जलि जाइ ॥४॥५॥ {पन्ना 1328}

पद्अर्थ: ता का = उस मनुष्य का। कहिआ = बोला हुआ वचन। दरि = प्रभू के दर पर। परवाणु = कबूल, ठीक माना जाता है। बिखु = जहर (भाव, दुख)। अंम्रितु = (भाव, सुख)। सम = बराबर। करि = कर के। जाणु = जो जाने वाला है।1।

किआ कहीअै = कुछ कहा नहीं जा सकता। सरबै = सब जीवों में। रजाइ = हुकम अनुसार।1। रहाउ।

चूका = दूर हो गया। सतिगुरि = सतिगुरू ने।2।

कलि महि = जगत में। जाणु = जानो, समझो। माणु = इज्जत।3।

अकथ घरि = अकथ प्रभू के घर में। बदनी = (वद् = बोलना)। जलि जाइ = जल जाता है, व्यर्थ जाता है।4।

अर्थ: हे प्रभू (जगत में) जो कुछ घटित हो रहा है सब तेरे हुकम अनुसार घटित हो रहा है। (किसी को सुख है किसी को दुख मिल रहा है, पर इसके उलट) कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि तू सब जीवों में मौजूद है (जिनको सुख अथवा दुख मिलता है उनमें भी तू स्वयं ही व्यापक है, और स्वयं ही उस सुख अथवा दुख को भोग रहा है)।1। रहाउ।

जो मनुष्य जहर और अमृत (दुख और सुख) दोनों को एक-समान समझने के लायक हो जाता है (परमात्मा की रज़ा के बारे में) उस मनुष्य का बोला हुआ वचन परमात्मा के दर पर ठीक माना जाता है (क्योंकि वह मनुष्य अच्छी तरह जानता है कि जिनको सुख व दुख मिलता है उन सबमें परमात्मा स्वयं मौजूद है)।1।

जिस मनुष्य को सतिगुरू ने आत्मिक जीवन देने वाला प्रभू का नाम दिया है, उसके अंदर परमात्मा की ज्योति कभी रौशनी हो जती है (उस रौशनी की बरकति से उसको अपनी विक्त की समझ पड़ जाती है, इस वास्ते उसके अंदर से) अहंकार दूर हो जाता है।2।

(हे भाई!) उसी मनुष्य को जगत में जन्मा समझो (भाव, उसी व्यक्ति का जगत में आना सफल है, जो सर्व-व्यापक परमात्मा की रजा को समझता है, और इस वास्ते) सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू की दरगाह में इज्जत हासिल करता है।3।

हे नानक! वही वचन बोलने और सुनने सफल हैं जिनसे मनुष्य बेअंत गुणों वाले परमात्मा के चरणों में जुड़ सकता है। (परमातमा की रज़ा से परे जाने वाली, परमात्मा के चरणों से दूर रखने वाली) और-और कहनी-कथनी व्यर्थ जाती है।4।5।

प्रभाती महला १ ॥ अम्रितु नीरु गिआनि मन मजनु अठसठि तीरथ संगि गहे ॥ गुर उपदेसि जवाहर माणक सेवे सिखु सुो खोजि लहै ॥१॥ गुर समानि तीरथु नही कोइ ॥ सरु संतोखु तासु गुरु होइ ॥१॥ रहाउ ॥ गुरु दरीआउ सदा जलु निरमलु मिलिआ दुरमति मैलु हरै ॥ सतिगुरि पाइऐ पूरा नावणु पसू परेतहु देव करै ॥२॥ रता सचि नामि तल हीअलु सो गुरु परमलु कहीऐ ॥ जा की वासु बनासपति सउरै तासु चरण लिव रहीऐ ॥३॥ गुरमुखि जीअ प्रान उपजहि गुरमुखि सिव घरि जाईऐ ॥ गुरमुखि नानक सचि समाईऐ गुरमुखि निज पदु पाईऐ ॥४॥६॥ {पन्ना 1328-1329}

पद्अर्थ: अंम्रितु = अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। नीरु = पानी। गिआनि = ज्ञान में, गुरू से मिले आत्मिक प्रकाश में। मजनु = चुभ्भी,स्नान। अठसठि = अढ़सठ। संगि = साथ ही, गुरू तीर्थ के साथ ही। गहे = मिल जाते हैं। उपदेसि = उपदेश में। सुो = वे (सिख)

(नोट: असल शब्द है 'सो', पर यहाँ पढ़ना है 'सु')।

लहै = पा लेता है। खोजि = खोज के।2।

समानि = जैसा, बराबर का। सरु = तालाब। तासु = वही।1। रहाउ।

निरमलु = मल रहित, साफ। दुरमति = बुरी अकल। हरै = दूर करता है। सतिगुरि पाईअै = यदि सतिगुरू मिल जाए। नावणु = स्नान। परेतहु = प्रेतों से। करै = बना देता है।2।

रता = रंगा हुआ। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। नामि = नाम में। तल = ऊपरी सतह (भाव, ज्ञान इन्द्रियां)। हीअलु = हिअरा, हृदय। परमलु = सुगंधी, चंदन। जा की = जिस की। वासु = सुगंधि (साथ)। सउरै = सँवर जाती है, सुगंधित हो जाती है। तासु चरण = उसके चरणों में। रहीअै = टिकी रहनी चाहिए।3।

जीअ प्राण = जीवों के प्राण, जीवों के आत्मिक जीवन। उपजहि = पैदा हो जाते हैं। सिव घरि = शिव के घर में, उसके घर में जो सदा कल्याण रूप है। निज = अपना। पदु = आत्मिक जीवन वाला दर्जा। निज पदु = वह आत्मिक दर्जा जो सदा अपना बना रहता है।4।

अर्थ: गुरू के बराबर का और कोई तीर्थ नहीं है। वह गुरू ही संतोख-रूप सरोवर है।1। रहाउ।

(गुरू से मिलने वाला) प्रभू-नाम (गुरू-तीर्थ का) जल है, गुरू से मिले आत्मिक प्रकाश में मन की डुबकी (उस गुरू-तीर्थ का) स्नान है, (गुरू-तीर्थ के) साथ ही अढ़सठ तीर्थों (के स्नान) मिल जाते हैं। गुरू के उपदेश (-रूप गहरे पानियों में परमात्मा की सिफतसालाह के) मोती और जवाहर है। जो सिख (गुरू-तीर्थ को) सेवता है (श्रद्धा से आता है) वह तलाश करके पा लेता है।1।

गुरू एक (ऐसा) दरिया है जिससे मिलता नाम-अमृत उस दरिया में (ऐसा) जल है जो सदा ही साफ रहता है, जिस मनुष्य को वह जल मिलता है उसकी खोटी मति की मैल दूर कर देता है। यदि गुरू मिल जाए तो (तो उस गुरू-दरिया में किया स्नान) सफल स्नान होता है, गुरू पशुओं से प्रेतों से देवता बना देता है।2।

जिस गुरू की ज्ञान-इन्द्रियां जिस गुरू का हृदय (सदा) परमात्मा के नाम-रंग में रंगा रहता है, उस गुरू को चँदन कहना चाहिए, चँदन की सुगंधि (पास उगी हुई) बनस्पति को (भी) सुगन्धित कर देती है (गुरू का उपदेश शरण आए लोगों का जीवन सँवार देता है), उस गुरू के चरणों में सुरति जोड़ के रखनी चाहिए।3।

गुरू की शरण पड़ने से जीवों के अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाते हैं, गुरू के माध्यम से उस प्रभू के दर पर पहुँच जाया जाता है जो सदा आनंद-स्वरूप है। हे नानक! गुरू की शरण पड़ने से सदा-स्थिर प्रभू में लीन हुआ जाता है, गुरू के द्वारा ऊँचा आत्मिक दर्जा मिल जाता है जो सदा ही अपना बना रहता है (अटल उच्च आत्मिक अवस्था मिल जाती है)।4।6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh