श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1329 प्रभाती महला १ ॥ गुर परसादी विदिआ वीचारै पड़ि पड़ि पावै मानु ॥ आपा मधे आपु परगासिआ पाइआ अम्रितु नामु ॥१॥ करता तू मेरा जजमानु ॥ इक दखिणा हउ तै पहि मागउ देहि आपणा नामु ॥१॥ रहाउ ॥ पंच तसकर धावत राखे चूका मनि अभिमानु ॥ दिसटि बिकारी दुरमति भागी ऐसा ब्रहम गिआनु ॥२॥ जतु सतु चावल दइआ कणक करि प्रापति पाती धानु ॥ दूधु करमु संतोखु घीउ करि ऐसा मांगउ दानु ॥३॥ खिमा धीरजु करि गऊ लवेरी सहजे बछरा खीरु पीऐ ॥ सिफति सरम का कपड़ा मांगउ हरि गुण नानक रवतु रहै ॥४॥७॥ {पन्ना 1329} पद्अर्थ: परसादी = कृपा से, प्रसादि। मानु = आदर। आपा मधे = अपने अंदर। आपु = अपना आप। परगासिआ = रौशन हो जाता है।1। करता = हे करतार! जजमान = दाता । (नोट: यजमान-वह जो यज्ञ आदि ब्राहमणों से करवा के उसको धन-पदार्थ भेटा करता है)। दखिणा = दक्षिणा, ब्राहमण को माया की भेटा, दान। तै पहि = तुझसे। मागउ = मैं माँगता हूँ।1। रहाउ। पंच = पाँच। तसकर = चोर। धावत = (विकारों की तरफ) दौड़ते। मनि = मन में (टिका हुआ)। दिसटि = निगाह, नजर। बिकारी = विकारों वाली। दुरमति = खोटी मति। ब्रहम गिआनु = परमात्मा के साथ जान पहचान।2। जतु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का उद्यम। सतु = ऊँचा आचरण। प्रापति पाती = प्रभू की प्राप्ति का पात्र बनना, परमात्मा से मिलाप की योग्यता। धानु = धन।3। सहजे = सहजि, अडोल अवस्था में। बछरा = बछड़ा (मन)। खीरु = दूध। सरम = उद्यम (श्रम)। रवतु रहै = सिमरता रहे।4। अर्थ: हे करतार! तू मेरा दाता है। मैं तेरे पास से एक दान माँगता हूँ। मुझे अपना नाम बख्श।1। रहाउ। जो मनुष्य गुरू की कृपा से (परमात्मा का नाम सिमरने की) विद्या विचारता है (सीखता है) वह उस विद्या को पढ़-पढ़ के (जगत में) आदर हासिल करता है, उसके अंदर ही उसका अपना आप चमक उठता है (उसका आत्मिक जीवन रौशन हो जाता है, उसके मन में से अज्ञानता का अंधेरा दूर हो जाता है), उस मनुष्य को आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल मिल जाता है।1। (सिमरन से) परमात्मा के साथ डाली हुई गहरी सांझ ऐसी (बरकति वाली) है कि (इसकी मदद से विकारों की तरफ) दौड़ती पाँचों ज्ञान-इन्द्रियां रोक ली जाती हैं, मन में (टिका हुआ) अहंकार दूर हो जाता है, विकारों वाली निगाह और दुर्मति समाप्त हो जाती है।2। (ब्राहमण अपने जजमान से चावल, गेहूँ, धन, दूध, घी आदि सारे पदार्थ माँगता है और लेता है। हे प्रभू! तू मेरा जजमान है, मैंने तेरे नाम का यज्ञ रचाया हुआ है,) मैं तुझसे ऐसा दान माँगता हूँ कि मुझे चावलों की जगह जत-सत दे (मुझे सच्चा आचरण दे कि मैं ज्ञानेन्द्रियों को बुराई की ओर बढ़ने से रोक सकूँ), गेहॅूँ की जगह तू मेरे हृदय में दया पैदा कर, मुझे ये धन दे कि मैं तेरे चरणों में जुड़ने के योग्य हो जाऊँ। मुझे शुभ कर्म (करने की समर्थता) दे, संतोख दे, ये है मेरे लिए दूध और घी।3। हे नानक! (कह- हे प्रभू! मेरे अंदर) दूसरों की ज्यादती सहने का स्वभाव और जिगरा पैदा कर, यह है मेरी लिए लवेरी गाय, ताकि मेरा मन बहुत शांत अवस्था में टिक के (ये शांति का) दूध पी सके। मैं तुझसे तेरी सिफत-सालाह करने के उद्यम का कपड़ा माँगता हूँ, ताकि मेरा मन सदा तेरे गुण गाता रहे।4।7। प्रभाती महला १ ॥ आवतु किनै न राखिआ जावतु किउ राखिआ जाइ ॥ जिस ते होआ सोई परु जाणै जां उस ही माहि समाइ ॥१॥ तूहै है वाहु तेरी रजाइ ॥ जो किछु करहि सोई परु होइबा अवरु न करणा जाइ ॥१॥ रहाउ ॥ जैसे हरहट की माला टिंड लगत है इक सखनी होर फेर भरीअत है ॥ तैसो ही इहु खेलु खसम का जिउ उस की वडिआई ॥२॥ सुरती कै मारगि चलि कै उलटी नदरि प्रगासी ॥ मनि वीचारि देखु ब्रहम गिआनी कउनु गिरही कउनु उदासी ॥३॥ जिस की आसा तिस ही सउपि कै एहु रहिआ निरबाणु ॥ जिस ते होआ सोई करि मानिआ नानक गिरही उदासी सो परवाणु ॥४॥८॥ {पन्ना 1329} पद्अर्थ: आवतु = (संसार में) आता, पैदा होता। न राखिआ = नहीं रोका। जावतु = जगत से जाता, मरता। जिस ते = जिस परमात्मा से। होआ = पैदा हुआ है। सोई = वही, वही परमात्मा। परुजाणै = अच्छी तरह जानता है। माहि = में।1। वाहु = आश्चर्य। परु होइबा = जरूर होगा।1। रहाउ। हरहट = रहट। माला = माहल। फेरि = दोबारा। खेलु = जगत रचना का तमाशा।2। मारगि = रास्ते पर। सुरती कै मारगि = परमात्मा के चरणों में सुरति जोड़ने के रास्ते पर। उलटी = (माया के मोह से) पलटी हुई। मनि = मन मे। वीचारि = विचार के। ब्रहम गिआनी = हे ब्रहम ज्ञानी! हे परमात्मा के साथ सांझ डालने का यतन करने वाले! गिरही = गृहस्थी।3। निरबाणु = वासना रहित। सोई = उसी प्रभू को। करि = कर के, (रजा का मालिक) जान के। मानिआ = माना, अपना मन जोड़ लिया। परवाणु = कबूल।4। अर्थ: हे प्रभू! (इस जगत का रचनहार) तू स्वयं ही है (तूने खुद ही इसको अपनी रज़ा के अनुसार पैदा किया है) तेरी रज़ा भी आश्चर्यजनक है (भाव, जीवों की समझ से परे है)। हे प्रभू! जो कुछ तू करता है, अवश्य ही वही कुछ घटित होता है, तेरी मर्जी के उलट (किसी जीव से) कुछ नहीं किया जा सकता (जीव का यह अंजानपना है कि तेरे रचे जगत से नफरत करे, और गृहस्थ छोड़ के फकीर जा बने)।1। रहाउ। प्रभू की रज़ा के अनुसार जो जीव जगत में पैदा होता है उसको पैदा होने से कोई रोक नहीं सकता, जो (मर के यहाँ से) जाने लगता है उसको कोई यहाँ रोक नहीं सकता। जिस परमात्मा से जगत पैदा होता है, उसी में ही लीन हो जाता है (इस जगत-रचना के भेद को) वह परमात्मा ही ठीक तरह से जानता है (जीव को ये बात नहीं शोभा देती कि जगत को बुरा कह के इससे नफरत कर के परे हटे)।1। जैसे बहते कूएँ (रहट लगे कूएँ) की माहल के साथ टिंडें (रहट में लगने वाले लोहे की बाल्टी समान डिब्बे) बँधी होती हैं (ज्यों-ज्यों रहट चलता है, त्यों-त्यों) कुछ टिंडें खाली होती जाती हैं और कुछ (टिंडें कूएँ के पानी से) फिर भरती जाती हैं। इसी तरह ही सारा जगत एक तमाशा है जो पति-प्रभू ने रचा हुआ है (कुछ यहाँ से कूच कर के जगह खाली कर जाते हैं, और कुछ शरीर धारण करके जगह आ घेरते हैं)। जैसे परमात्मा की मर्जी है वैसे ही यह तमाशा हो रहा है (इससे नाक मरोड़ना फबता नहीं)।2। (पर हाँ) उस मनुष्य की निगाह में रोशनी हुई है (भाव, उस मनुष्य को जीवन-जुगति की सही समझ पड़ी है) जिसने (जगत के रचनहार) करतार के चरणों में सुरति जोड़ने के रास्ते पर चल के अपनी सुरति माया के मोह से हटाई है। हे परमात्मा के साथ सांझ डालने का यतन करने वाले! अपने मन में सोच के (आँखें खोल के) देख (यदि सुरति ठिकाने पर नहीं है; तो) ना ही गृहस्ती जीवन-यात्रा में ठीक राह पर चल रहा है और ना ही (वह मनुष्य जो अपने आप को) विरक्त (समझता है)।3। हे नानक! जिस परमात्मा ने दुनिया वाली मोह-माया की आशा चिपका दी है, जो मनुष्य उसी परमात्मा के (यह आशा तृष्णा) हवाले करता है, और वासना-रहित हो के जीवन गुजारता है, और इस परमात्मा की रज़ा में यह जगत-रचना हुई है उसको रजा का मालिक जान के उसमें अपना मन जोड़ता है, वह चाहे गृहस्ती है चाहे विरक्त, वह परमात्मा की दरगाह में कबूल है।4।8। प्रभाती महला १ ॥ दिसटि बिकारी बंधनि बांधै हउ तिस कै बलि जाई ॥ पाप पुंन की सार न जाणै भूला फिरै अजाई ॥१॥ बोलहु सचु नामु करतार ॥ फुनि बहुड़ि न आवण वार ॥१॥ रहाउ ॥ ऊचा ते फुनि नीचु करतु है नीच करै सुलतानु ॥ जिनी जाणु सुजाणिआ जगि ते पूरे परवाणु ॥२॥ ता कउ समझावण जाईऐ जे को भूला होई ॥ आपे खेल करे सभ करता ऐसा बूझै कोई ॥३॥ नाउ प्रभातै सबदि धिआईऐ छोडहु दुनी परीता ॥ प्रणवति नानक दासनि दासा जगि हारिआ तिनि जीता ॥४॥९॥ {पन्ना 1329} पद्अर्थ: दिसटि = दृष्टि, निगाह, नजर, सुरति। बिकारी = विकारों की ओर। बंधनि = बंधन से, जकड़ से, रस्सी से। हउ = मैं। तिस कै = उस बंदे से। बलि जाई = मैं कुर्बान जाता हूँ। सार = अस्लियत। अजाई = व्यर्थ।1। सचु = सदा कायम रहने वाला। फुनि = दोबारा। बहुड़ि = दोबारा। आवण वार = आने की बारी, जनम लेने की बारी।1। रहाउ। सुलतान = बादशाह। जाणु = जाननहार प्रभू को। जगि = जगत में।2। ता कउ = उस बंदे को। को = कोई। करता = करतार।3। सबदि = गुरू के शबद में (जुड़ के)। दुनी परीता = दुनिया की प्रीत, माया का मोह। तिनि = उस मनुष्य ने।4। अर्थ: (हे भाई!) करतार का सदा कायम रहने वाला नाम (सदा) सिमरो। (नाम सिमरन की बरकति से जगत में) बार-बार जनम लेने की बारी नहीं आएगी।1। रहाउ। मैं उस बंदे से कुर्बान जाता हूँ जो (अपनी) विकारों की ओर जाती सुरति को (हरी-नाम सिमरन की) डोरी से बाँध के रखता है। (पर जो मनुष्य सिमरन से टूट के) भले-बुरे काम के भेद को नहीं समझता, वह (जीवन के सही रास्ते से टूट के) भटकता फिरता है और (जीवन) व्यर्थ गवाता है।1। (हे भाई! उस करतार का नाम सदा सिमरो) जो ऊँचों से नीच कर देता है और निम्न श्रेणियों (गरीबों) को बादशाह बना देता है। जिन लोगों ने उस (घट-घट की) जानने वाले परमात्मा को अच्छी तरह जान लिया है (भाव, उससे गहरी सांझ डाल ली है) जगत में आए वही लोग सफल हैं और कबूल हें।2। (पर, जीवों के भी क्या वश?) उसी जीव को मति देने का यतन किया जा सकता है जो (खुद) गलत रास्ते पर पड़ा हो, (यहाँ तो राह पड़ने अथवा गलत रास्ते पड़ने वाला) सारा ही तमाशा करतार स्वयं ही कर रहा है- यह भेद भी कोई विरला व्यक्ति ही समझता है। (और वह रज़ा के मालिक करतार का नाम सिमरता है)।3। (हे भाई!) अमृत बेला में (उठ के) गुरू के शबद में जुड़ के करतार का नाम सिमरना चाहिए, (हे भाई!) माया का मोह त्यागो (ये मोह ही करतार की याद भुलाता है)। करतार के सेवकों का सेवक नानक विनती करता है कि जो व्यक्ति (माया का मोह त्याग के) जगत में निम्रता के साथ जिंदगी गुजारता है, उसी ने ही (जीवन की बाज़ी) जीती है।4।9। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |